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________________ आगम साहित्य के सुभाषित (१८३) सोही उज्जुअभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई । ३।१२ ऋजु अर्थात् सरल आत्मा की विशुद्धि होती है और विशुद्ध आत्मा में ही धर्म ठहरता है । (१८४) वेराणुबद्धा नरयं उवेंति । ४।२ जो वैर की परम्परा को लम्बा किये रहते हैं, वे नरक को प्राप्त होते हैं । (१८५) कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि । ४१३ कृत कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं है । (१८६) सकम्मुणा किच्चइ पावकारी | ४ | ३ पापात्मा अपने ही कर्मों से पीड़ित होता है । (१८७) वित्तेण ताणं न लभे पत्ते इमम्मि लोए अदुवा परत्था | ४|५ प्रमत मनुष्य धन के द्वारा अपनी रक्षा नहीं कर सकता, न इस लोक में और न परलोक में । (१८८) घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं भारंडपक्खी व चरेऽप्पमत्ते । ४।६ समय बड़ा भयंकर है, और इधर प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण होता हुआ शरीर है | अतः साधक को सदा अप्रमत्त होकर भारंड पक्षी ( सतत सतर्क रहने वाला एक पौराणिक पक्षी) की तरह विचरण करना चाहिए। (१८९) अप्पणा सच्चमेसेज्जा । ६१२ अपनी स्वयं की आत्मा के द्वारा सत्य का अनुसंधान करो । (१६०) मेति भूएसु कप्पए । ६।२ ६५७ समस्त प्राणियों पर मित्रता का भाव रखो । (१९१) न चित्ता तायए भासा, कुओ विज्जाणुसासणं । ६।११ fafar भाषाओं का पाण्डित्य मनुष्य को दुर्गति से नहीं बचा सकता, फिर भला विद्याओं का अनुशासन अध्ययन किसी को कैसे बचा सकेगा ? (१९२) पुव्वकम्मखयट्ठाए, इमं देहं समुद्धरे । ६।१४ पहले के किए हुए कर्मों को नष्ट करने के लिए इस देह की सार-संभाल रखनी चाहिए । ८।१७ (१६३) जहा लाही तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई । दमासक कज्जं, कोडीए वि न निट्ठियं । ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ होता है। निरंतर बढ़ता ही जाता है। दो माशा सोने से (स्वर्ण मुद्राओं) से भी सन्तुष्ट नहीं हो पाया । इस प्रकार लाभ से लोभ सन्तुष्ट होने वाला करोड़ों
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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