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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
(१६९) अप्पा हु खलु सययं रक्खिअव्वो। -चूलिका २६१६ . ' 'अपनी आत्मा को सतत पापों से बचाये रखना चाहिए। उत्तराध्ययन (१७०) अट्ठजुत्ताणि सिक्खिज्जा, निरट्ठाणि उ वज्जए । १०८
अर्थयुक्त (सारभूत) बातें ही ग्रहण करनी चाहिए और निरर्थक बातें
छोड़ देनी चाहिए। (१७१) अणुसासिओ न कुप्पिज्जा । श६
गुरुजनों के अनुशासन से कुपित-क्षुब्ध नहीं होना चाहिए। (१७२) खुड्डेहिं सह संसग्गिं, हासं कीडं च वज्जए। १६
क्षुद्र लोगों के साथ सम्पर्क, हंसी-मजाक, क्रीड़ा आदि नहीं करना चाहिए। (१७३) बहुयं मा य आलवे । १०१०
बहुत नहीं बोलना चाहिए । (१७४) नापुट्ठो वागरे किंचि, पुट्ठो वा नालियं वए । १।१४
बिना पूछे बीच में कुछ नहीं बोलना चाहिए, पूछने पर भी असत्य न बोले । (१७५) अप्पाणं पिन कोवए । ११४०
अपने आप पर भी कभी क्रोध मत करो। (१७६) न सिया तोत्तगवेसए। ११४०
.... दूसरों के छलछिद्र नहीं देखना चाहिए। (१७७) नच्चा नमइ मेहावी । ११४५
बुद्धिमान् शान प्राप्त करके नम्र हो जाता है। (१७८) माइन्ने असणपाणस्स । २३
साधक को खाने-पीने की मात्रा-मर्यादा का ज्ञान होना चाहिए। (१७६) अदीणमणसो चरे । २३ .
संसार में अदीनभाव से रहना चाहिए। (१८०) सरिसो होइ बालाणं । २।४ .
बुरे के साथ बुरा होना, बचकानापन (अज्ञानता) है। (१८१) नत्थि जीवस्स नासो त्ति । २२२७
आत्मा का कभी नाश नहीं होता। .(१८२) सद्धा परमदुल्लहा। ३ .. .
.... धर्म में श्रद्धा होना परम दुर्लभ है। ..
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