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आगम साहित्य के सुमाषित ६५५ (१५६) पिट्ठिमंसं न खाइज्जा । ८४७
किसी की चुगली खाना-पीठ का मांस नोचने के समान है, अतः किसी
की पीठ पीछे चुगली नहीं खाना चाहिए। (१५७) कुज्जा साहूहि संथवं । ८।५३
हमेशा साधुजनों के साथ ही संस्तव-संपकं रखना चाहिए। (१५८) न या वि मोक्खो गुरुहीलणाए। ६।११७
गुरुजनों की अवहेलना करने वाला कभी बंधनमुक्त नहीं हो सकता। (१५६) जस्संतिए धम्मपयाई सिक्खे, तस्संतिए वेणइयं पउंजे । ६।१।१२
जिनके पास धर्मपद-धर्म की शिक्षा ले, उनके प्रति सदा विनय भाव
रखना चाहिए। (१६०) एवं धम्मस्स विणओ मूलं परमो यसे मोक्खो । ६।२
धर्म का मूल विनय है और मोक्ष उसका अन्तिम फल है। (१६१) असंविभागी न हु तस्स मोक्खो । ६।२२३
जो संविभागी नहीं है, अर्थात् प्राप्त सामग्री को साथियों में बाँटता नहीं है,
उसकी मुक्ति नहीं होती। (१६२) जो छंदमारायई स पुज्जो। ६।३१
जो गुरुजनों की भावनाओं का आदर करता है, वही शिष्य पूज्य होता है। (१६३) अलद्धयं नो परिदेवइज्जा लद्धं न विकत्थयई स पुज्जो।।३४
जो लाम (प्राप्ति) न होने पर खिन्न नहीं होता है, और लाभ (प्राप्ति) होने
पर अपनी बढ़ाई नहीं हाँकता है, वही पूज्य है । (१६४) न य बुग्गहियं कहं कहिज्जा । १०।१०
विग्रह बढ़ाने वाली बात नहीं करनी चाहिए। (१६५) पुढविसमो मुणी हवेज्जा । १०.१३
मुनि को पृथ्वी के समान क्षमाशील होनी चाहिए। (१६६) संभिन्नवत्तस्स य हिट्ठिमा गई।-चूलिका ११४
व्रत से भ्रष्ट होने वाले की अधोगति होती है । (१६७) चइज्ज देहं, न हु धम्मसासणं।-चूलिका १२१७
देह को (आवश्यक होने पर) मले ही छोड़ दो, किन्तु अपने धर्म शासन को
मत छोड़ो। (१६८) अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो।-चूलिका २३
अनुस्रोत-अर्थात् विषयासक्त रहना, संसार है । प्रतिस्रोत-अर्थात् विषयों से विरक्त रहना, संसार-सागर से पार होना है।