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________________ ६५४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा (१४५) अवि अप्पणो वि देहमि, नायरंति ममाइयं । ६।२२ अकिंचन मुनि, और तो क्या, अपने देह पर भी ममत्व नहीं रखते। (१४६) मियं अदु→ अणुवीइ भासए, सयाण मज्झे लहई पसंसणं । ७५५ जो विचारपूर्वक सुन्दर और परिमित शब्द बोलता है, सज्जनों में प्रशंसा पाता है। (१४७) अप्पमत्तो जये निच्चं । ८१६ सदा अप्रमत्त भाव से साधना में यत्नशील रहना चाहिए। (१४८) बहुं सुणेहिं कन्नेहिं, बहुं अच्छीहिं पिच्छइ। न य दिळें सुयं सव्वं भिक्खू अक्खाउमरिहाइ । बा२० भिक (मुनि) कानों से बहुत सी बातें सुनता है, आँखों से बहुत सी बातें देखता है। किन्तु देखी-सुनी सभी बातें (लोगों में) कहना उचित नहीं है। (१४६) देहदुक्खं महाफलं । ८२७ शारीरिक कष्टों को समभावपूर्वक सहने से महाफल की प्राप्ति होती है। (१५०) बीयं तं न समायरे । ८.३१ एक बार भूल होने पर दुबारा उसकी आवृत्ति न करे। (१५१) जरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न वड्ढइ । जाविदिया न हायंति, तावधम्म समायरे ।।८३६ जब तक बुढ़ापा माता नहीं है। जब तक व्याधियों का जोर बढ़ता नहीं है, जब तक इन्द्रियाँ (कर्म करने की शक्ति) क्षीण नहीं होती है, तभी तक बुद्धिमान को, जो भी धर्माचरण करना हो, कर लेना चाहिए। (१५२) कोहो पीई पणासेइ, माणो विणयनासणो। माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सव्व विणासणो।।८।३८ क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का, माया मैत्री का और लोभ सभी सद्गुणों का विनाश कर डालता है। (१५३) उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे। माय मज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे।।।३६ क्रोध को शान्ति से, मान को मृदुता-नम्रता से, माया को ऋजुता-सरलता से और लोम को संतोष से जीतना चाहिए। (१५४) राइणिएसु विणयं पउजे । ८४१ बड़ों (पूज्यनीयों) के साथ विनयपूर्ण व्यवहार करो। (१५५) अपुच्छिओ न भासेज्जा, भासमाणस्स अन्तरा।८।४७ बिना पूछे व्यर्थ ही किसी के बीच में नहीं बोलना चाहिए।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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