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________________ आगम साहित्य के सुभाषित ६५३ (१३२) जयं चरे जयं चिट्टे, जयमासे जयं सए। जयं भुजतो भासंतो, पावं कम्मं न बन्धइ ।। ४१८ . चलना, खड़ा होना, बैठना, सोना, भोजन करना और बोलना आदि प्रवृत्तियां यतनापूर्वक करते हुए साधक को पापकर्म का बन्ध नहीं होता। (१३३) पढमं नाणं तओ दया। ४।१० पहले ज्ञान होना चाहिए और फिर तदनुसार दया अर्थात् आचरण। .. (१३४) जं सेयं तं समायरे । ४।११ जो श्रेय (हितकर) हो, उसी का आचरण करना चाहिए। (१३५) दवदवस्स न गच्छेज्जा । ।०१४ मार्ग में जल्दी-जल्दी नहीं चलना चाहिए। (१३६) हसंतो नाभिगच्छेज्जा । ५।१।१४। मार्ग में हंसते हुए नहीं चलना चाहिए। (१३७) संकिलेसकरं ठाणं, दूरओ परिवज्जए। २०१६ जहाँ भी कहीं क्लेश की संभावना हो, उस स्थान से दूर रहना चाहिए। (१३८) महधयं व भुंजिज्ज संजए । १९७ सरस या नीरस-जैसा भी थाहार मिले, साधक उसे 'मधुषुत' की तरह प्रसन्नतापूर्वक खाए। (१३९) काले कालं समायरे। ।।२।४ जिस काल (समय) में जो कार्य करने का हो, उस काल में वही कार्य करना चाहिए। (१४०) अणुमायं पि मेहावी, मायामोसं विवज्जए । २०५१ आत्मविद् साधक अणुमात्र भी माया भूषा (दंम और असत्य) का सेवन न करे। (१४१) अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमो । ६६ । सब प्राणियों के प्रति स्वयं को संयत रखना-यही अहिंसा का पूर्ण दर्शन है। (१४२) सव्वे जीवा वि इच्छन्ति, जीविउं न मरिज्जिउं।६।११ समस्त प्राणी सुखपूर्वक जीना चाहते हैं; मरना कोई नहीं चाहता। (१४३) मुसावाओ उ लोगम्मि, सब्बसाहूहि गरहिओ। ६।१३।। विश्व के सभी सत्पुरुषों ने मृषावाद (असत्य) की निन्दा की है। (१४४) मुच्छा परिग्गहो बुत्तो। ६२१ मूर्छा को ही वस्तुतः परिग्रह कहा है।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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