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जैन आगम साहित्य : एक अनुशीलन ३६ गये । दिगम्बर मान्यता के अनुसार भद्रबाहु का स्वर्गवास वीर निर्वाण के १६२ वर्ष पश्चात् हुआ था।
वीर निर्वाण सं० २१६ में स्थूलभद्र स्वर्गस्थ हए। वे शाब्दी दृष्टि से अन्तिम चार पूर्व के ज्ञाता थे । वे चार पूर्व भी उनके साथ ही नष्ट हो गये। आर्य ववस्वामी तक दस पूर्वो की परम्परा चली। वे वीर निर्वाण ५५१ (वि० सं०८१) में स्वर्ग पधारे। उस समय दसवाँ पूर्व नष्ट हो गया। दुर्बलिका पुष्यमित्र । पूर्वो के ज्ञाता थे। उनका स्वर्गवास वीर निर्वाण ६०४ (वि० सं० १३४) में हुआ। उनके साथ ही नवा पूर्व भी विच्छिन्न हो गया।
इस प्रकार पूर्वी का विच्छेद-क्रम देवद्धिगणी क्षमाश्रमण तक चलता रहा । स्वयं देवद्धिगणी एक पूर्व से अधिक श्रुत के ज्ञाता थे। आगम साहित्य का बहुत-सा भाग लुप्त होने पर भी आगमों का कुछ मौलिक भाग आज भी सुरक्षित है। किन्तु दिगम्बर परम्परा की यह धारणा नहीं है। श्वेताम्बर समाज मानता है कि आगम-संकलन के समय उसके मौलिक रूप में कुछ अन्तर अवश्य ही आया है। उत्तरवर्ती घटनाओं एवं विचारणाओं का उसमें समावेश किया गया है, जिसका स्पष्ट प्रमाण स्थानांग में सात निह्नवों और नव गणों का उल्लेख है। वर्तमान में प्रश्नव्याकरण का मौलिक विषयवर्णन भी उपलब्ध नहीं है तथापि अंग साहित्य का अत्यधिक अंश मौलिक है। भाषा की दृष्टि से भी ये आगम प्राचीन सिद्ध हो चुके हैं। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा को भाषा-शास्त्री पच्चीस सौ वर्ष पूर्व की मानते हैं।
प्रश्न हो सकता है कि वैदिक वाङमय की तरह जैन आगम साहित्य पूर्णरूप से उपलब्ध क्यों नहीं है? वह विच्छिन्न क्यों हो गया? इसका मूल कारण है देवद्धिगणी क्षमाश्रमण के पूर्व आगम साहित्य व्यवस्थित रूप से लिखा नहीं गया। देवद्धिगणी के पूर्व जो आगम वाचनाएँ हई, उनमें आगमों का लेखन हुआ हो, ऐसा स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता। वह श्रुतिरूप में ही चलता रहा। प्रतिभासम्पन्न योग्य शिष्य के अभाव में गुरु ने वह ज्ञान शिष्य को नहीं बताया जिसके कारण श्रुत-साहित्य धीरेधीरे विस्मृत होता गया। लेखन परम्परा
आगम व आगमेतर साहित्य के अनुसार लिपि का प्रारम्भ प्रागऐति