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६५. जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
हे आर्य ! आत्मा ही सामायिक (समत्वमाव) है, और आत्मा ही सामायिक का अर्थ (विशुद्धि) है।
(इस प्रकार गुण-गुणी में भेद नहीं, अभेद है।) (EC) जीवा णो वड्ढंति, णो हायंति, अवठ्ठिया । ५८
जीव न बढ़ते हैं, न घटते हैं, किन्तु सदा अवस्थित रहते हैं। (१००) समाहिकारए णं तमेव समाहिं पडिलब्भई । ७.१
समाधि (सुख) देने वाला समाधि पाता है। (१०१) हथिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे । ७८
आत्मा की दृष्टि से हाथी और कुंथुआ-दोनों में आत्मा एक समान है। (१०२) एग अन्नयरं तसं पाणं हणमाणे
अणेगे जीवे हणइ । ।३४ एक त्रस जीव की हिंसा करता हुआ आत्मा तत्संबंधित अनेक जीवों की
हिंसा करता है। (१०३) अत्थेगइयाणं जीवाणं सुत्तत्तं साहू,
अत्थेगइयाणं जीवाणं जागरियत्तं साहू । १२२ अधार्मिक आत्माओं का सोते रहना अच्छा है और धर्मनिष्ठ आत्माओं
का जागते रहना। (१०४) नत्थि केई परमाणपोग्गलमेत्ते वि पएसे,
जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, न मए वा वि । १२७ इस विराट् विश्व में परमाणु जितना भी ऐसा कोई प्रदेश नहीं है । जहाँ
यह जीव न जम्मा हो, न मरा हो। (१०५) जीवाणं चेयकडा कम्मा कज्जति,
नो अचेयकडा कम्मा कज्जति । १६०२
आत्माओं के कर्म चेतनाकृत होते हैं, अचेतनाकृत नहीं। (१०६) अत्तकडे दुक्खे, नो परकडे । १७५
आत्मा का दुःख स्वकृत है, अपना किया हुआ है, परकृत अर्थात् किसी अन्य
का किया हुआ नहीं है। प्रश्नव्याकरण (१०७) न य अवेदयित्ता अस्थि हु मोक्खो। १०१
हिंसा के कटुफल को भोगे बिना छुटकारा नहीं है।