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________________ ६४६ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा (७६) आहंसु विज्जाचरणं पमोक्खं । १०१२।११ शान और कर्म (विद्या एवं चरण) से ही मोक्ष प्राप्त होता है। (७७) संतोसिणो नोपकरेंति पावं ।१।१२।१५ संतोषी साधक कभी कोई पाप नहीं करते। (७८) अन्नं जणं खिसई बालपन्ने। ११३।१४ जो अपनी प्रज्ञा के अहंकार में दूसरों को अवज्ञा करता है, वह मूर्ख बुद्धि (बालप्रज्ञ) है। (७६) न यावि पन्ने परिहास कुज्जा ।।१४।१६ बुद्धिमान किसी का उपहास नहीं करता। (८०) विभज्जवायं च वियागरेज्जा ।।१४।२२ विचारशील पुरुष सदा विभज्यवाद अर्थात् स्याद्वाद से युक्त वचन का *... प्रयोग करे। (८१) नाइवेलं वएज्जा ।।१४।२५ साधक आवश्यकता से अधिक न बोले । (८२) अन्नो जीवो, अन्नं सरीरं । २०१६ आत्मा और है, शरीर और है। (८३) पत्तेयं जायति पत्तेयं मरइ । २१०१३ हर प्राणी अकेला जन्म लेता है, अकेला मरता है। (५४) धम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरति । २।२।३८ सद्गृहस्थ धर्मानुकूल ही आजीविका करते हैं। (८५) अदक्खु, व दक्खुवाहियं सद्दहसु । २।३।११ नहीं देखने वालो ! तुम देखने वालों की बात पर विश्वास करके चलो। : स्थानांग. (८६) एगा अहम्मपडिमा, जं से आया परिकिलेसति । ११११३८ ___एक अधर्म ही ऐसी विकृति है, जिससे आत्मा क्लेश पाता है। (८७) एगा धम्मपडिमा, जं से आया पज्जवजाए । १२११४० ___एक धर्म ही ऐसा पवित्र अनुष्ठान है, जिससे आत्मा की विशुद्धि होती है। किं भया पाणा? दुक्खभया पाणा। दुक्खे केण कडे ? जीवेणं कडे पमाएणं । ३२ प्राणी किससे भय पाते हैं ? दुःख से। दुःख किसने किया है? स्वयं आत्मा ने, अपनी ही भूल से।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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