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________________ आगम साहित्य के सुभाषित (६३) नो पूयणं तवसा आवहेज्जा। १७१२७ तप के द्वारा पूजा प्रतिष्ठा की अभिलाषा नहीं करनी चाहिए। (६४) दुक्खेण पुढे धुयमायएज्जा । १७।२६ दुःख आ जाने पर भी मन पर संयम रखना चाहिए। (६५) पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहावरं । शा३ प्रमाद को कर्म-आस्रव और अप्रमाद को अकर्म-संवर कहा है। (६६) पावोगहा हि आरंभा, दुक्खफासा य अंतसो। शा७ पापानुष्ठान अन्ततः दुःख ही देते हैं। (६७) जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे। एवं पावाई मेहावी, अज्झप्पेणं समाहरे ॥शा१६ कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों को अन्दर में समेट कर खतरे से बाहर हो जाता है। वैसे ही साधक भी अध्यात्म योग के द्वारा अन्तर्मुख होकर अपने को पाप-वृत्तियों से सुरक्षित रखे। (६८) अप्पपिण्डासि पाणासि, अप्पं भासेज्ज सुव्वए। शा२५ सुव्रती साधक कम खाये, कम पीये और कम बोले । झाणाजोगं समाहटु, कायं विउसेज्ज सव्वसो शा२६ ध्यानयोग का अवलम्बन कर देहभाव का सर्वतोभावेन विसर्जन करना चाहिए। (७०) अणुचिंतिय वियागरे। शा२५ जो कुछ बोले-पहले विचार कर बोले । (७१) जं छन्नं तं न वत्तव्वं । १९२६ किसी की कोई गोपनीय जैसी बात हो, तो नहीं कहना चाहिए। (७२) णतिवेलं हसे मुणी। शहा२९ मर्यादा से अधिक नहीं हँसना चाहिए। (७३) बुच्चमाणो न संजले । १९३१ साधक को कोई दुर्वचन कहे, तो भी वह उस पर गरम न हो, क्रोध न करे। (७४) बालजणो पगब्भई । १२१२२ अभिमान करना अज्ञानी का लक्षण है। (७५) न विरुज्झेज्ज केण वि । १।११।१२ किसी के भी साथ वैर विरोध न करो।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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