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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करे । अहिंसामूलक समता ही धर्म का सार है, बस इतनी बात सदैव ध्यान में
रखनी चाहिए। (५१) संबुज्झह, किं न बुज्झह ? संबोही खलु पेच्च' दुल्लहा।
जो हूवणमंति राइयो, नो सुलभं पुनरावि जीवियं ॥१२२२१२१ अभी इसी जीवन में समझो, क्यों नहीं समझ रहे हो? मरने के बाद परलोक में संबोधि का मिलना कठिन है। जैसे बीती हुई रातें फिर लौटकर नहीं आतीं, उसी प्रकार मनुष्य का गुजरा हुआ जीवन फिर हाय
नहीं आता। (५२) सयमेव कडेहिं गाहइ, नो तस्स मुच्चेज्जपुठ्ठयं । १०१४
आत्मा अपने स्वयं के कर्मों से ही बन्धन में पड़ता है। कृतकर्मों को भोगे
बिना मुक्ति नहीं है। (५३) अहऽसेयकरी अन्नेसि इंखिणी। शरा२।१६
दूसरों की निम्दा हितकर नहीं है। (५४) बाले पापेहि मिज्जती। श२२२२२१
अज्ञानी आत्मा पाप करके भी उस पर अहंकार करता है। (५५) अत्तहियं खु दुहेण लब्भई । १२।२।३०
आत्महित का अवसर कठिनाई से मिलता है। (५६) अदक्खु कामाइ रोगवं । १०२६२
सच्चे साधक की दृष्टि में काम-भोग रोग के समान हैं। (५७) जेहिं काले परक्कंतं, न पच्छा परितप्पए । १२३४५
। जो समय पर अपना कार्य कर लेते हैं, वे बाद में पछताते नहीं। (५८) जहा कडं कम्म, तहासि भारे। १शश२६
जैसा किया हुआ कर्म, वैसा ही उसका भोग । दाणाण सेठं अभयप्पयाणं । १।६।२३
अभयदान ही सर्वश्रेष्ठ दान है। (६०) तयेसु वा उत्तमं बंभचेरं । १६२३
तपों में सर्वोत्तम तप है-ब्रह्मचर्य । (६१) सच्चेसु वा अणवज्ज वयंति । १।६।२३
सत्य वचनों में भी अनवद्य सत्य (हिंसा-रहित सत्य वचन) श्रेष्ठ है । सकम्मुणा विपरियासुवेइ । १२७११ प्रत्येक प्राणी अपने ही कृतकर्मों से कष्ट पाता है।
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