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आगम साहित्य के सुभाषित
(३६) नो निन्हवेज्ज वीरियं । १२३
- अपनी योग्य शक्ति को कभी छुपाना नहीं चाहिए। (४०) इमेण चेव जुज्झाहि, कि ते जुज्झेण बज्झओ। ११५३
अपने अन्तर (के विकारों) से ही युद्ध कर। बाहर के युद्ध से तुझे
क्या मिलेगा? (४१) वितिगिच्छासमावन्नेणं अप्पाणेणं नो लहई समाहि । १५१५
शंकाशील व्यक्ति को कभी समाधि नहीं मिलती। (४२) जे आया से विनाया, जे विनाया से आया।
जेण वियाणइ से आया, तं पडुच्च पडिसंखाए । ११५५ जो आत्मा है, वह विज्ञाता है। जो विज्ञाता है, वह आत्मा है। जिससे जाना जाता है, वह आत्मा है। जानने की इस शक्ति से ही आत्मा की
प्रतीति होती है। (४३) नो अत्ताणं आसाएज्जा, नो पर आसाएज्जा । १२६५
न अपनी अवहेलना करो, और न दूसरों की। (४४) समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए।शमा
आर्य महापुरुषों ने समभाव में धर्म कहा है। (४५) नो बयणं फरुसं वइज्जा । श६
कठोर-कटवचन न बोले। सूत्रकृतांग (४६) बुज्झिज्जत्ति तिउट्रिज्जा, बंधणं परिजाणिया। शश०१ .
सर्वप्रथम बन्धन को समझो, और समझकर फिर उसे तोड़ो। (४७) नो य उप्पज्जए असं । शशश१६
असत् कभी सत् नहीं होता। (४८) अप्पणो य परं नालं, कुतो अन्नाणसासिउं। शास१७
जो अपने पर अनुशासन नहीं रख सकता, वह दूसरों पर अनुशासन कैसे कर
सकता है? (४६) सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं ।
जे उ तत्थ विउस्सन्ति, संसारं ते विउस्सिया। १२१२२२२३ जो अपने मत की प्रशंसा, और दूसरों के मत की निन्दा करने में ही अपना
पांडित्य दिखाते हैं, वे एकान्तवादी संसार-चक्र में भटकते ही रहते हैं। (५०) एयं खु नाणिणो सारं, जन हिंसइ किंचण ।
अहिंसा समयं चेव, एतावन्तं वियाणिया ॥ २१४११०