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________________ २ . ६४४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा (जिस प्रकार समग्र विश्व अनन्त है, उसी प्रकार एक छोटे-से-छोटा पदार्य भी अनन्त है, अनन्त गुण-पर्याय वाला है, अत: अनंतशानी ही एक और सबका पूर्ण ज्ञान कर सकता है।) सव्वओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अपमत्तस्स ! नत्थि भयं । १२३४ प्रमत्त को सब ओर भय रहता है। अप्रमत्त को किसी ओर भी भय नहीं है । (३१) जे एग नामे, से बहुं नामे । १२३४ जो एक अपने को नमा लेता है-जीत लेता है, वह समग्र संसार को नमा लेता है-जीत लेता है। न लोगस्सेसणं चरे। जस्स नत्थि इमा जाई, अण्णा तस्स को सिया? ११४१ लोकैषणा से मुक्त रहना चाहिए। जिसको यह लोकषणा नहीं है, उसको अन्य पाप-प्रवृत्तियाँ कैसे हो सकती हैं ? जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा। जे अणासवा ते अपरिस्सवा, जे अपरिस्सवा ते अणासवा । १।४।२ जो बन्धन के हेतु हैं, वे ही कभी मोक्ष के हेतु भी हो सकते हैं, और जो मोक्ष के हेतु हैं, वे ही कमी बन्धन के हेतु भी हो सकते हैं। जो व्रत उपवास आदि संवर के हेतु हैं, वे कभी-कभी संवर के हेतु नहीं भी हो सकते हैं। और जो आस्रव के हेतु हैं, वे कभी-कमी आस्रव के हेतु नहीं भी हो सकते हैं। (तात्पर्य है आस्रव और संवर आदि सब मूलतः साधक के अन्तरंग भावों पर आधारित हैं।) (३४) एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरगं । १४३ आत्मा को शरीर से पृथक् जानकर भोगलिप्त शरीर को धुन डालो। कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं। २४३ अपने को कृश करो, तन-मन को हल्का करो। अपने को जीर्ण करो, भोगवृत्ति को जर्जर करो। (३६) जे छेए से सागारियं न सेवेइ । १२५१ जो कुशल हैं, वे काम-मोगों का सेवन नहीं करते। (३७) उठ्ठिए नो पमायए। १२ जो कर्तव्यपथ पर उठ खड़ा हुआ है, उसे फिर प्रमाद नहीं करना चाहिए । (३८) बन्धप्पमोक्खो अज्झत्थेव । १२२ वस्तुतः बन्धन और मोक्ष अन्दर में ही है। (३५)
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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