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________________ आगम साहित्य के सुभाषित (२०) (१८) पावं कम्म नेव कुज्जा, न कारवेज्जा । १।२।६ पापकर्म (असत्कर्म) न स्वयं करे, न दूसरों से करवाए। (१९) जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थई । जह तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्णस्स कत्थइ ।२।६ निःस्पृह उपदेशक जिस प्रकार पुण्यवान (संपन्न व्यक्ति) को उपदेश देता है, उसी प्रकार तुच्छ (दीन-दरिद्र व्यक्ति) को भी उपदेश देता है और जिस प्रकार तुच्छ को उपदेश देता है, उसी प्रकार पुण्यवान को उपदेश देता है अर्थात् दोनों के प्रति एक जैसा भाव रखता है। माई पमाई पुण एइ गभं । १३३१ मायावी और प्रमादी बार-बार गर्भ में अवतरित होता है, जन्म-मरण करता है। (२१) कम्मुणा उवाही जायइ । १२३३१ कर्म से ही समग्र उपाधियाँ-विकृतियां पैदा होती हैं। (२२) कम्ममूलं च जं छणं । श३१ कर्म का मूल क्षण अर्थात् हिंसा है। (२३) सम्मत्तदंसी न करेइ पावं । १२३२ सम्यग्दर्शी साधक पापकर्म नहीं करता। आयंकदंसी न करेइ पावं । १०३२ जो संसार के दुःखों का ठीक तरह दर्शन कर लेता है, वह कभी पाप कर्म नहीं करता है। (२५) सच्चमि धिई कुवह । १०३।२ सत्य में धृति कर, सत्य में स्थिर हो । (२६) पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्तं, किं बहिया मित्तमिच्छसि ? १३३ मानव ! तू स्वयं ही अपना मित्र है। तू बाहर में क्यों किसी मित्र (सहायक) की खोज कर रहा है? (२७) पुरिसा! सच्चमेव समभिजाणाहि । १३३ हे मानव ! एक मात्र सत्य को ही अच्छी तरह जान ले, परख ले। (२८) सच्चस्स आणाए उवट्ठिए मेहावी मारं तरइ । १।३३ जो मेधावी साधक सत्य की आज्ञा में उपस्थित रहता है, वह मार-मृत्यु के प्रवाह को तैर जाता है। जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ। जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ ॥ १३४ जो एक को जानता है वह सब को जानता है। और जो सब को जानता है, वह एक को जानता है। (२४)
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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