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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
(४) जे गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणे । ११११५
जो काम-गुण है, इन्द्रियों का शब्दादि विषय है, वह आवर्त संसार-चक्र है और जो आवतं है, वह काम गुण है।
(५) आतुरा परितावेंति । १ १ ६
विषयातुर मनुष्य ही दूसरे प्राणियों को परिताप देते हैं ।
(६) वओो अच्चेति जोव्वणं च । ११२११
आयु और यौवन प्रतिक्षण बीता जा रहा है। (७) विमुता हु ते जणा, जे जणा पारगामिणो । ११२२
जो साधक कामनाओं को पार कर गए हैं, वस्तुतः वे ही मुक्त पुरुष हैं।
(८) तम्हा पंडिए नो हरिसे, नो कुप्पे । १ २ ३
आत्मज्ञानी साधक को ऊँची या नीची किसी भी स्थिति में न हर्षित होना चाहिए, और न कुपित ।
(e) उद्देसो पासगस्स नत्थि । ११२३
तत्त्वद्रष्टा को किसी के उपदेश की अपेक्षा नहीं है ।
(१०) नत्थि कालस्स णागमो | १|२| ३
मृत्यु के लिए अकाल --- वक्त-बेवक्त जैसा कुछ नहीं है । (११) आसं च छंदं च विगिच धीरे ! तुमं चैव सल्लमाहट्टु । ११२२४ हे धीर पुरुष ! आशा तृष्णा और स्वच्छन्दता का त्याग कर। तू स्वयं ही इन कीटों को मन में रखकर दुखी हो रहा है ।
(१२) अलं कुसलस्स पाए । १२२॥४
बुद्धिमान साधक को अपनी साधना में प्रमाद नहीं करना चाहिए। (१३) लाभुत्तिन मज्जिज्जा, अलाभुत्ति न सोइज्जा । १२१५ प्राप्त होने पर गर्व न करे, न प्राप्त होने पर शोक न करे । (१४) कामा दुरतिक्कम्मा । १२२२५
कामनाओं का पार पाना बहुत कठिन है ।
(१५) एस वीरे पसंसिए, जे बद्ध पडिमोयए । १२५
वही वीर प्रशंसित होता है, जो अपने को तथा दूसरों को दासता के बन्धन से मुक्त कराता है ।
(१६) वेरं वड्ढेइ अप्पणी | ११२२५
विषयातुर मनुष्य, अपने भोगों के लिए संसार में वैर बढ़ाता रहता है ।
( १७ ) अलं बालस्स संगे णं । ११२२५
बाल जीव (अज्ञानी) का संग नहीं करना चाहिए ।