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तुलनात्मक अध्ययन
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शुद्ध सत्य की ज्योति का दर्शन कराया। यही उनके प्रवचनों का मुख्य उद्देश्य था । यही कारण है कि उन्होंने जन-जन के कल्याणार्थ उस युग की जन बोली अर्धमागधी में अपने पावन प्रवचन किये और अपने कल्याणकारी दृष्टिकोण से जन-जीवन में अभिनव जागृति का संचार किया। उनके पवित्र प्रवचन जो अर्थरूप में थे उसका संकलन - आकलन गणधरों व स्थविरों ने सूत्र रूप में किया । अर्धमागधी भाषा में संकलित यह आगमसाहित्य विषय की दृष्टि से, साहित्य की दृष्टि से व सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । जब भारत के उत्तर-पश्चिमी और पूर्व के कुछ अञ्चलों में ब्राह्मण धर्म का प्रभुत्व बढ़ रहा था उस समय जैन श्रमणों ने मगध और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में परिभ्रमण कर जैनधर्म की विजय वैजयन्ती फहराई । यह इस विशाल साहित्य के अध्ययन, चिन्तन-मनन से परिज्ञात होता है । इसमें जैन श्रमणों के उत्कृष्ट आचार-विचार, व्रत-नियम, सिद्धान्त, स्वमतसंस्थापन, परमत- निरसन, प्रभृति अनेक विषयों पर विस्तार से विश्लेषण है । विविध आख्यान, चरित्र, उपमा, रूपक, दृष्टान्त आदि के द्वारा विषय को अत्यन्त सरल व सरस बनाकर प्रस्तुत किया गया है। वस्तुतः आगम साहित्य, जैन संस्कृति, इतिहास, समाज और धर्म का आधार स्तंभ है। इसके बिना जैनधर्म का सही व सांगोपांग परिचय नहीं प्राप्त हो सकता। यह सत्य तथ्य है कि विभिन्न परिस्थितियों के कारण जैन-धर्म के सिद्धान्तों में भी परिवर्तन-परिवर्द्धन होते रहे हैं, पर आगम साहित्य में मूल दृष्टि से कोई अन्तर नहीं आया है ।
आगम - साहित्य में आई हुई अनेक बातें परिस्थितियों के कारण से विस्मृत होने लगीं । आगमों के गहन रहस्य जब विस्मृति के अंचल में छिपने लगे तो प्रतिभामूर्ति आचार्यों ने उन रहस्यों को स्पष्ट करने के लिए नियुक्ति भाष्य, चूर्णि, टीका, आदि व्याख्या साहित्य का सृजन किया । फलस्वरूप आगमों के व्याख्या साहित्य ने अतीत काल से आने वाली अनेक अनुश्रुतियों, परम्पराओं, ऐतिहासिक और अर्ध- ऐतिहासिक कथानकों एवं धार्मिक, आध्यात्मिक व लौकिक कथाओं के द्वारा जैन साहित्य के गुरुगंभीर रहस्यों को प्रकट किया। यह साहित्य व्याख्यात्मक होने पर भी जैनधर्म के मर्म को समझने के लिए अतीव उपयोगी है। इसमें जैन आचारशास्त्र के विधिविधानों की सूक्ष्म चर्चा है। हिंसा-अहिंसा, जिनकल्प व स्थविरकल्प की fafar अवस्थाओं का विशद् विश्लेषण किया गया है। क्रियावादी, अक्रिया