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________________ ६३२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा पर निर्वाण को परमसुख कहा है और बताया है कि शीलविशुद्धि तभी तक है जब तक कि पुरुष चित्त-विशुद्धि को प्राप्त नहीं होता। चित्तविशुद्धि तभी तक है जब तक कि दृष्टिविशुद्धि को प्राप्त नहीं होता । दृष्टिविशुद्धि तभी तक है जब तक कि कांक्षावितरणविशुद्धि को प्राप्त नहीं होता। कांक्षावितरणविशुद्धि तब तक है जब तक मार्गामार्गज्ञानदर्शन विशुद्धि को प्राप्त नहीं होता। मार्गामार्गज्ञानदर्शनविशुद्धि तब तक है जब तक कि प्रतिपद्ज्ञानदर्शनविशुद्धि को प्राप्त नहीं होता। प्रतिपद्ज्ञानदर्शन विशुद्धि तब तक है जब तक कि ज्ञानदर्शनविशुद्धि को प्राप्त नहीं होता। ज्ञानदर्शनविशुद्धि तभी तक है जब तक कि उपादान रहित परिनिर्वाण को प्राप्त नहीं होता। अजात-जन्मरहित, अनुत्तर-सर्वोत्तम योगक्षेम (मंगलमय) निर्वाण की पर्येषणा करता है। जैन और बौद्ध दोनों ही दर्शनों में निर्वाण की चर्चा है। दोनों ने निर्वाण के लिए सच्चा विश्वास, ज्ञान और आचार-विचार को प्रधानता दी । है पर दोनों में मुख्य अन्तर यह है कि बौद्ध दृष्टि से द्रव्य सत्ता का अभाव ही निर्वाण है जबकि जैन दृष्टि से आत्मा की शुद्ध अवस्था निर्वाण है। पुग्गल-पुद्गल शब्द का प्रयोग जैन और बौद्ध वाङमय के अतिरिक्त अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। भगवतीसूत्र में जीव तत्त्व के अर्थ में पुद्गल शब्द का प्रयोग हुआ है। किन्तु जैन परम्परा में मुख्य रूप से पुद्गल वर्ण, गंध, रस, संस्थान और स्पर्श वाले रूपी जड़ पदार्थ को कहा है। बौद्ध परम्परा में पुद्गल का अर्थ आत्मा और जीव है। विनय' शब्द का प्रयोग भी दोनों ही परम्पराओं में मिलता है। उत्तराध्ययन और दशवकालिक सूत्र और ज्ञाताधर्मकथा में विनय की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए विनय को धर्म का व जिनशासन का मूल कहा है। १ मज्झिमनिकाय २२३३५ २ मज्झिमनिकाय ११३१४ ३ मज्झिमनिकाय ११३१६ ४ मगवती चा३।१०२०३१२ ५ मज्झिमनिकाय ११४ ६ विनय जिनशासन मूलो
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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