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तुलनात्मक अध्ययन बताये ' हैं: - महारम्भ, महापरिग्रह, मद्यमांस का आहार और पंचेन्द्रिय वध ये नरक के कारण हैं। सरागसंयम, संयमासंयम, बालतपोपकर्म और अकाम निर्जरा ये स्वर्ग के कारण हैं।
मज्झिमनिकाय में भी नरक और स्वर्ग के कारण बताये गये हैं ।
वे ये हैं
[ कायिक ३] हिंसक, अदिनादायी (चोर), काम में मिथ्याचारी; [ वाचिक ४] मिथ्यावादी, चुगलखोर, परुषभाषी, प्रलापी; [मानसिक ३] अभिष्यालु, व्यापन्नचित्त, मिथ्यादृष्टि । इन कर्मों को करने वाले नरक में जाते हैं, इसके विपरीत कार्य करने वाले स्वर्ग में जाते हैं ।
जैनदर्शन की साधना पद्धति का परम और चरम लक्ष्य मोक्ष रहा है । मोक्ष का अर्थ है आत्म-गुणों का पूर्ण विकास, कर्म की परतन्त्रता से पूर्ण रूप से मुक्त होना । उसमें शरीरमुक्ति, बन्धनमुक्ति और क्रियामुक्ति होती है ।
मोक्ष के लिए पाप का प्रत्याख्यान, इन्द्रिय संगोपन, शरीर संयम, वाणी संयम, मानमाया परिहार, ऋद्धि रस और सुख के गौरव का त्याग, उपशम, अहिंसा, अचौर्य, सत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, क्षमा, ध्यान, योग और कायव्युत्सर्ग- ये अकर्म वीर्य हैं। पण्डित इनके द्वारा मोक्ष का परिव्राजक बनता है। निर्वाण किसी क्षेत्र विशेष का नाम नहीं है अपितु मुक्त आत्माएँ ही निर्वाण हैं, वे लोकाग्र में रहती हैं अतः उपचार से उसे भी निर्वाण कहा जाता है। मुक्त जीव अलोक से प्रतिहत हैं, लोकान्त में प्रतिष्ठित हैं । "
मुक्त जीव के शरीर नहीं होता। मुक्त दशा में आत्मा का किसी अन्य शक्ति में विलय नहीं होता। सभी मुक्त जीवों की विकास स्थिति समान होती है और उनकी स्वतन्त्र सत्ता होती है। मुक्त दशा में आत्मा संपूर्ण वैभाविक, औपाधिक विशेषताओं से मुक्त होता है, उसका पुनरार्वतन नहीं होता ।
मज्झिमनिकाय में निर्वाणमार्ग का विस्तार से वर्णन है ।" वहाँ
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स्थानांग ४|४|३७३
२ मज्झिमनिकाय ११५३१
३ सूत्रकृतांग शाह ३६
४ औपपातिकसूत्र
५ मज्झिमनिकाय ११३३४