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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
प्रतिपादन किया गया है कि व्रत ग्रहण करने वाले व्यक्ति को शल्य रहित होना चाहिए । शल्य वह है जो आत्मा को कांटे की तरह दुख दे। उसके तीन प्रकार हैं
(१) माया शल्य-छल-कपट करना।
(२) निवान शल्य-आगामी काल में विषयों की वाञ्छा करना। -- (३) मिथ्यावर्शन शल्य-तत्त्वों का श्रद्धान न होना।
मज्झिमनिकाय में तृष्णा के लिए शल्य शब्द का प्रयोग हुआ है और साधक को उससे मुक्त होने के लिए कहा गया है।
आचारांग के शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में इन्द्रिय संयम की महत्ता बताते हुए कहा है कि रूप, रस, गंध, शब्द एवं स्पर्श अज्ञानियों के लिए आवर्त रूप हैं ऐसा समझकर विवेकी उनमें मूच्छित नहीं होता । यदि प्रमाद के कारण पहले इनकी ओर झुकाव रहा हो तो ऐसा निश्चय करना चाहिए कि मैं इनसे बचूंगा-इनमें नहीं फसूंगा, पूर्ववत् आचरण नहीं करूंगा।
मज्झिमनिकाय२ में पाँच इन्द्रियों का वर्णन है.-..चक्ष, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा और काय। इन पाँचों इन्द्रियों का प्रतिशरण मन है। मन इनके विषय का अनुभव करता है।
पाँच काम गुण हैं-(१) चक्षुविज्ञेय रूप, (२) श्रोतविज्ञेय शब्द, (२) घ्राणविज्ञेय गंध, (४) जिह्वाविज्ञेय रस, (५) कायविज्ञेय स्पर्श ।'
स्थानांग, भगवती आदि में नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चार गतियों का वर्णन है।
मज्झिमनिकाय में पांच गतियाँ बताई हैं। नरक, तिर्यग, प्रेत्यविषय, मनुष्य, देवता । जैन आगमों में प्रेत्यविषय और देवता को एक कोटि में माना है । भले ही निवासस्थान की दृष्टि से दो भेद किये गये हों पर गति की दृष्टि से वे दोनों एक ही हैं।
जैन आगम साहित्य में नरक और स्वर्ग में जाने के निम्न कारण
१ मज्झिमनिकाय ३३११५ २ मझिमनिकाय १३५२३ ३ मज्झिमनिकाय श२।४ ४ मज्झिमनिकाय ११२।२