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जैन आगम साहित्य : एक अनुशीलन ३७ प्रत्यावर्तन कैसे करते ? सभी कार्य अवरुद्ध हो गये। शनैः-शनैः श्रुत का ह्रास होने लगा। अतिशायी श्रुत नष्ट हुआ। अंग और उपांग साहित्य का भी अर्थ की दृष्टि से बहुत बड़ा भाग नष्ट हो गया। दुर्भिक्ष की परिसमाप्ति पर श्रमण संघ मथुरा में स्कन्दिलाचार्य के नेतृत्व में एकत्रित हुआ। जिनजिन श्रमणों को जितना-जितना अंश स्मरण था उसका अनुसन्धान कर कालिक श्रृत और पूर्वगत श्रुत के कुछ अंश का संकलन हुआ। यह वाचना मथुरा में सम्पन्न होने के कारण 'माधुरी' वाचना के रूप में विश्रुत हुई। उस संकलन श्रुत के अर्थ की अनुशिष्टि आचार्य स्कंदिल ने दी थी अतः उस अनुयोग को 'स्कन्दिली' वाचना भी कहा जाने लगा।'
नन्दीसूत्र की चूणि और वृत्ति के अनुसार माना जाता है कि दुर्भिक्ष के कारण किञ्चित्मात्र भी श्रुतज्ञान तो विनष्ट नहीं हुआ, किन्तु केवल आचार्य स्कन्दिल को छोड़कर शेष अनुयोगधर मुनि स्वर्गवासी हो चुके थे। एतदर्थ आचार्य स्कन्दिल ने पुन: अनुयोग का प्रवर्तन किया, जिससे प्रस्तुत वाचना को माथुरी वाचना कहा गया और सम्पूर्ण अनुयोग स्कन्दिल सम्बन्धी माना गया।
चतुर्थ वाचना-जिस समय उत्तर, पूर्व और मध्य भारत में विचरण करने वाले श्रमणों का सम्मेलन मथुरा में हुआ था, उसी समय दक्षिण और पश्चिम में विचरण करने वाले श्रमणों की एक वाचना (वीर निर्वाण सं०५२७-८४०) वल्लभी (सौराष्ट्र) में आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में हुई। किन्तु वहाँ पर जो श्रमण एकत्रित हुए थे, उन्हें बहुत कुछ श्रुत विस्मृत हो चुका था। जो कुछ उनके स्मरण में था, उसे ही संकलित किया गया। यह वाचना 'वल्लभी वाचना' या 'नागार्जुनीय वाचना' के नाम से अभिहित है।
१ आवश्यक चूर्णि २ (क) नन्दी चूणि, पृ०८
(ख) नन्दी गाथा ३३, मलयगिरि वृत्ति, पृ० ५१ ३ (क) काहाबली। (ख) जिन वचनं च दुष्षमाकालवशात् उच्छिन्नप्रायमितिमत्वा भगवद्भिर्नागार्जुन स्कन्दिलाचार्य प्रभृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तम् ।
-योगशास्त्र, प्र०३, पृ० २०७