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________________ ६२८ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा पवज्जन्ति' यह शब्द व्यवहृत हुआ है। सम्यकदृष्टि और मिथ्यादृष्टि इन शब्दों का प्रयोग भी जैन और बौद्ध साहित्य में प्राप्त होता है। स्वयं के अनुयायियों के लिए 'सम्यक्दृष्टि' और दूसरे के अनुयायियों के लिए 'मिथ्यावृष्टि' शब्द का प्रयोग किया गया है। 'वैरमण' शब्द का प्रयोग भी दोनों ही परम्पराओं में व्रत लेने के अर्थ में हुआ है। मज्झिमनिकाय में सम्मादिदि सुत्तन्त नामक एक सूत्र है। उसमें सम्यग्दृष्टि का वर्णन करते हुए लिखा है-आर्य श्रावक सम्यग्दृष्टि होता है। उसकी दृष्टि सीधी होती है। वह धर्म में अत्यन्त श्रद्धावान होता है। वह अकुशल एवं अकुशलमूल को जानता है। साथ ही कुशल और कुशलमूल को भी जानता है। जिससे वह आर्य श्रावक सम्यग्दृष्टि होता है। . अकुशल दस प्रकार का है और अकुशलमूल तीन प्रकार का है। (१) प्राणातिपात (हिंसा) (२) अदत्तादान (चोरी) (३) काम(स्त्रीसंसर्ग) में मिथ्याचार (४) मृषावाद (झूठ बोलना) (५) पिशुन वचन (चुगली) (६) परुष वचन (कठोर भाषण) (७) संप्रलाप (बकवास) (5) अभिध्या (लालच) (९) व्यापाद (प्रतिहिंसा) (१०) मिथ्यादृष्टि (झूठी धारणा), हे आवुसो ये अकुशल हैं। (१) लोभ, (२) द्वेष, (३) मोह-ये तीन अकुशलमूल हैं। जैन दृष्टि से साधना का मूल सम्यगदर्शन है और साधना का बाधक तत्त्व मोहनीयकर्म है। राग और द्वेष ये मोह के ही प्रकार हैं। इसी प्रकार मज्झिमनिकाय में बुराइयों की जड़ लोभ, द्वेष और मोह को बताया गया है। तस्वार्थसूत्र में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के अधिगम और निसर्ग-ये दो कारण बताये हैं। मज्झिमनिकाय में एक प्रश्नोत्तर मिलता है कि सम्यग्दृष्टि ग्रहण के कितने प्रत्यय हैं ? उत्तर में कहा-दो प्रत्यय हैं(१) दूसरों के घोष-उपदेश श्रवण और (२) योनिशः मनस्कार-मूल पर विचार करना। १ महावग्ग २ मज्झिमनिकाय ११ ३ तनिसर्गादधिगमाद्वा। ४ मज्झिमनिकाय १।५।३ -तस्वार्थसूत्र ३ .
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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