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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
इसी तरह सूत्रकृतांग की तुलना दीघनिकाय के साथ, उपासकदशांग की तुलना दीघनिकाय के साथ, अन्तकृत्दशांग की तुलना थेर और थेरीगाथा के साथ, राजप्रश्नीय की तुलना पायासीसुत्त के साथ, निशीथ की तुलना विनयपिटक के साथ और छेदसूत्रों की तुलना पातिमुख के साथ की जा सकती है।
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जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में अनेकों शब्दों का प्रयोग समान रूप से हुआ है । उदाहरण के लिए हम कुछ शब्द साम्य यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।
निगंठ-निर्ग्रन्थ, जो अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह से मुक्त है । जैनपरम्परा में तो श्रमणों के लिए 'निर्ग्रन्थ' शब्द हजारों बार व्यवहृत हुआ है । बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में भी जैन श्रमणों के लिए 'निर्ग्रन्थ ' शब्द का प्रयोग हुआ है। श्रमण भगवान महावीर के पुनीत प्रवचन को भी निर्ग्रन्थ प्रवचन कहा है ।
भन्ते - जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में आदरणीय व्यक्तियों को आमन्त्रित करने के लिए 'भन्ते' (भदन्त ) शब्द व्यवहृत हुआ है । २
थेरे—दोनों ही परम्पराओं में ज्ञान, वय और दीक्षा पर्याय आदि को लेकर थेरे या स्थविर शब्द का व्यवहार हुआ है ।" बौद्ध परम्परा में बारह वर्ष से अधिक वृद्ध भिक्षुओं के लिए थेर या थेरी शब्द का प्रयोग हुआ है। जैन परम्परा में भी एक मर्यादा निश्चित की गई है। जो स्वयं भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि में स्थिर रहता है और दूसरों को भी स्थिर करता है, वह स्थविर है। स्थविर को भगवान की उपमा से अलंकृत किया गया है। गीता में 'स्थविर' के स्थान पर 'स्थितप्रज्ञ' का प्रयोग हुआ है । स्थितप्रज्ञ वह विशिष्ट व्यक्ति होता है जिसका आचार निर्मल और विचार पवित्र होते हैं।
आउसो - जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं में समान या अपने से लघु व्यक्तियों के लिए 'आउस' (आयुष्यमान् ) शब्द का प्रयोग हुआ है । तथागत बुद्ध को 'आउस गौतम' कहकर सम्बोधित किया गया है तो
१ जे इमे अज्जताते समणा निम्गंथा ।
२ से केणट्ठणं भन्ते, णूणं मन्ते, सेबं भन्ते, सव्वं मन्ते ।
३ थेरा भगवन्तो भगवती
- कल्पसूत्र २०४, पृ० २०१
--भगवतीसूत्र ७।३।२७९