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६१४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
(३) कोई पुरुष कृष्णाभिजातिक हो, अकृष्ण, अशुक्ल निर्वाण को पैदा करता है।
(४) कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक (उचे कुल में उत्पन्न हो) शुक्ल धर्म करता है।
(५) कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक हो, कृष्ण धर्म करता है।
(६) कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक हो, अकृष्ण-अशुक्ल निर्वाण को पैदा करता है।
महाभारत में प्राणियों के वर्ण छह प्रकार के बताये हैं। सनत्कुमार ने दानवेन्द्र वृत्रासुर से कहा-प्राणियों के वर्ण छह होते हैं-कृष्ण, धूम्र, नील, रक्त, हारिद्र और शुक्ल । इनमें से कृष्ण, धूम्र, नील वर्ण का सुख मध्यम होता है। रक्त वर्ण अधिक सह्य होता है। हारिद्र वर्ण सुखकर और शुक्ल वर्ण अधिक सुखकर होता है।
गीता में गति के कृष्ण और शुक्ल ये दो विभाग किये हैं। कृष्ण गति वाला पुन:-पुन: जन्म लेता है और शुक्ल गति वाला जन्म-मरण से मुक्त होता है।
धम्मपद में धर्म के दो विभाग किये गये हैं। वहाँ वर्णन है कि पण्डित मानव को कृष्ण धर्म को छोड़कर शुक्ल धर्म का आचरण करना चाहिए।
पतञ्जलि ने पातञ्जल योग-सूत्र में कर्म की चार जातियाँ प्रतिपादन की हैं। कृष्ण, शुक्लकृष्ण, शुक्ल, अशुक्ल-अकृष्ण। ये क्रमशः अशुद्धतर, अशुद्ध, शुद्ध और शुद्धतर है।
इस तरह लेश्याओं के साथ में आंशिक दृष्टि से तुलना हो सकती है। स्थानांग में सुगत के तीन प्रकार बताये गये हैं-(१) सिद्धि सुगत
१ (क) अंगुत्तरनिकाय ६।६।३ भाग तीसरा पृ०६३, ६४
(ख) दीघनिकाय ३१.पृ०२६५ २ महाभारत, शान्तिपर्व, २८०१३३ ३ गीता, २६ ४ षम्मपद, पण्डितवरण, श्लोक १६ ५ पातञ्जल योगसूत्र, ४७