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६१२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा त्तरनिकाय में तीन प्रकार से कर्मसमुदय माना है लोभज, दोषज (द्वेषज), और मोहज।' उन सभी में मोह को अधिक दोषजनक माना है।
- स्थानांग व समवायांग में आठ मद के स्थान बताये हैं-जाति मद, कुल मद, बल मद, रूप मद, तप मद, श्रुत मद, लाभ और ऐश्वर्य मद। तो अंगुत्तरनिकाय में मद के तीन प्रकार बताये-यौवन, आरोग्य, जीवित मद । इन तीन मदों से मानव दुराचारी बनता है।
स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग५ में आस्रव के निरोध को संवर कहा और उसके भेद-प्रभेदों की चर्चा की है; तथागत बुद्ध ने अंगुत्तरनिकाय में कहा आस्रव का निरोष मात्र संवर से ही नहीं होता। उन्होंने इस प्रकार उसका विभाग किया-(१) संवर से (इन्द्रियाँ मुक्त होती हैं तो इन्द्रियों का संवर करने से गुप्तेन्द्रियाँ होने से तद्जन्य आस्रव नहीं होता) (२) प्रतिसेवना से (३) अधिवासन से (४) परिवर्जन से, (५) विनोद से (६) भावना सेइन सभी में अविद्या निरोध को ही मुख्य आस्रव निरोध माना है। . स्थानाङ्ग आदि में अरिहन्त, सिद्ध, साधु, धर्म इन चार शरण आदि का उल्लेख है; तो बुद्ध परम्परा में बुद्ध, धर्म और संघ ये तीन शरण को महत्व दिया गया है। स्थानांग में जैन उपासक के लिए पांच अणवतों का विधान है। तो अंगुत्तरनिकाय में बौद्ध उपासक के लिए पांच शील का उल्लेख है-(१) प्राणातिपात विरमण (३) अदत्तादान विरमण (२) कामभोग मिथ्याचार से विरमण, (४) मृषावाद विरमण (५) सूरा, मेरेय मद्य प्रमाद स्थान से विरमण ।
१ अंगुत्तरनिकाय ३३ २ अंगुत्तरनिकाय ३६७, ६॥३६ ३ स्थानांग ६०६, समवायांग ४ अंगुत्तरनिकाय ३३३६ ५ (क) स्थानांग ४२७; ५६८
(ख) समवायांग ११५ ६ अंगुत्तरनिकाय ६।५८ ७ अंगुत्तरनिकाय ६।६३ ८ स्थानांग ३८६ & अंगुत्तरनिकाय ८।२५