________________
तुलनात्मक अध्ययन ६११
से, चतुविध संघ का अवर्णवाद करने से, यक्ष के आवेश से, मोहनीय कर्म के उदय से तो बुद्ध ने भी अंगुत्तरनिकाय में कहा है कि चार अचिन्तनीय की चिन्ता करने से मानव उन्मादी हो जाता है - ( १ ) तथागत बुद्ध भगवान के ज्ञान का विषय, (२) ध्यानी के ध्यान का विषय (३) कर्मविपाक और (४) लोकचिता ।
स्थानाङ्ग में जिन कारणों से आत्मा के साथ बंध होता है, उन्हें आस्रव" कहा है। मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग- आस्रव कहे गए हैं। बौद्धग्रंथ अंगुत्तरनिकाय में आस्रव का मूल अविद्या को बताया है। अविद्या का निरोध होने से आस्रव का स्वतः निरोध हो जाता है। आस्रव के कामास्रव, भवास्रव और अविद्यास्रव - ये तीन भेद किये हैं। मज्झिमनिकाय में मन, वचन और काय की क्रिया को ठीक-ठीक करने से आस्रव रुकता है यह प्रतिपादित किया गया है। आचार्य उमास्वाति ने भी कायमन-वचन की क्रिया को योग कहा है और वही आस्रव है । स्थानांग में विकथा के स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा, राजकथा, मृदुकारुणिकी कथा, दर्शनभेदनी कथा और चारित्रभेदनीकथा ये सात प्रकार बताये हैं तो बुद्ध ने विकथा के स्थान पर तिरच्छान शब्द का प्रयोग किया है। उसके राजकथा, चोरकथा, महामात्यकथा, सेनाकथा, भयकथा, युद्धकथा, अन्नकथा, पानकथा, वस्त्रकथा, शयनकथा, मालाकथा, गंधकथा, ज्ञातिकथा, यानकथा, गामकथा, निगमकथा, नगरकथा, जनपदकथा, स्त्रीकथा आदि अनेक भेद किये हैं।
स्थानाङ्ग में राग और द्वेष से पाप कर्म का बंध बताया है तो अंगु
१
स्थानांग ६
२ अंगुत्तरनिकाय ४।७७
३ (क) स्थानांग ५, ४११८ (ख) समवायांग ५
४ अंगुत्तरनिकाय ३३५८, ६१६३
५ मज्झिमनिकाय १।१।२
६ तत्त्वार्थसूत्र अ० ६१-२
७
स्थानांग, ५६६
८ अंगुत्तरनिकाय १०,६६ स्थानांग ६६