SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 638
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तुलनात्मक अध्ययन ६.६ वह ज्ञाता है, वह परिज्ञाता है। उसके लिए कोई उपमा नहीं। वह अरूपी सत्ता है। वह अपद है । वचन अगोचर के लिए कोई पदवाचक शब्द नहीं। वह शब्द-रूप नहीं, रूप-रूप नहीं, गन्ध-रूप नहीं, रस-रूप नहीं, स्पर्श-रूप नहीं। वह ऐसा कुछ भी नहीं है, ऐसा मैं कहता हूँ। यही बात केनोपनिषद् कठोपनिषद्, बृहदारण्यक, माण्डुक्योप १ सम्वे सरा नियट्टन्ति तक्का जत्थन विज्जइ मइ तत्थ न गाहिया 'ओए अप्पट्टाणस्स खेयन्ने से न दीहे न हस्से न बट्ट म तं से न चउर से न परिमंडले न किण्हे न नीले न लोहिए न हालिद्दे न सुक्किल्ले, न सुरभिगंधे न दुरभिगंधे न तित्ते न कडुए न कसाए न अंबिले न महुरे न कक्खडे न मउए नगरुए न लहुए न उण्हे न निद्धन लुक्खे न काऊ न रुहे न संगे न इत्यी न पुरिसे न अनहा परि सन्न उवमा न विज्जए अस्वी सत्ता अपयस्स पयं नत्थि से न सद्दे न रूवे न गंधे न रसे न फासे इच्चेव ति बेमि -आचारांग १०६ २ न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग् गच्छति, न मनो, न वियो न विजानीमो यतद् अनु शिष्यात् अन्यदेव तद् विदितात् अथो अविदितादपि इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तद् व्याचचक्षिरे। -केनोपनिषद्, खं०१, श्लोक ३ ३ अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययम् तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत् -कठोपनिषद्, ०१, श्लोक १५ अस्थूलम्, अनणु, महस्वम्, अदीर्घम्, अलोहितम्, अस्नेहम्, अच्छायम्, अतमो, अवायु, अनाकाशम्, असंगम्, अरसम्, अगाधम्, अचक्षुष्कम्, अश्रोत्रम्, अवाग, अमनो, अतेजस्कम्, अप्राणम्, अमुखम्, अमात्रम्, अनन्तरम्, अबाह्यम्, न तद् अपनाति किचन, न तद् अश्नाति-कश्चन ।"-बहवारण्यक ब्राह्मण लोक
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy