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६०८ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
और तप का स्पष्ट निर्देश नहीं है जैसा कि आचारांग आदि जैन आगमों में हुआ है।
आचारांग में आत्मा के स्वरूप पर चिन्तन करते हुए लिखा है कि सम्पूर्ण लोक में किसी के द्वारा भी आत्मा का छेदन नहीं होता, भेदन नहीं होता, दहन नहीं होता और न हनन ही होता है। इसी की प्रतिध्वनि सुबालोपनिषद् और गीता' में भी मिलती है।
आचारांग में आत्मा के ही सम्बन्ध में कहा गया है कि जिसका आदि और अन्त नहीं है उसका मध्य कैसे हो सकता है । गौडपादकारिका में भी यही बात अन्य शब्दों में दुहराई गई है। "
आचारांग में जन्ममरणातीत, नित्य, मुक्त आत्मा का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए लिखा है कि 'उस दशा का वर्णन करने में सारे शब्द निवृत्त हो जाते हैं—समाप्त हो जाते हैं। वहीं तर्क की पहुँच नहीं और न बुद्धि उसे ग्रहण कर पाती है। कर्म-मल रहित केवल चैतन्य ही उस दशा का ज्ञाता है।'
मुक्त आत्मा न दीर्घ है, न ह्रस्व, न वृत्त-गोल । वह न त्रिकोण है न चौरस, न मण्डलाकार है । वह न कृष्ण है न नील, न लाल न पीला, और न शुक्ल ही । वह न सुगन्धि वाला है न दुर्गन्धि वाला है। वह न तिक्त है, न कडुआ न कषैला, न खट्टा, और न मधुर । वह न कर्कश है, न मृदु, वह न भारी है, न हल्का । वहन शीत है न उष्ण, वह न स्निग्ध है न रूक्ष |
वह न शरीरधारी है, न पुनर्जन्मा है, न आसक्त । वह न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक |
१ स न छिज्जइ न मिज्जइ न उज्झद न हम्मइ, कं चणं सव्वलोए
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न जायते न म्रियते न मुह्यति न भिद्यते न दह्यते । न छिद्यते न कम्पते न कुप्यते सर्वदहनोऽयमारमा ||
-- आचारांग १।३।३
-- सुबालोपनिषद् ९ खण्ड ईशाष्टोत्तर शतोपनिषद् पृ० २१०
३ अच्छेयोऽयमदापोऽयमक्लेयोऽशोष्य एव च । नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः । ४ जस्सं नत्थि पुरा पच्छा मज्मे तस्स कओ सिया । ५ आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेपि तत्तथा ।
भगवद्गीता, अ० २, श्लो० २३ -- आचारांग १२४॥४
-गौडपादकारिका, प्रकरण २, श्लो० ६