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________________ दिगम्बर जैन आगम साहित्य : एक पर्यवेक्षण ५६७ जंबुद्दीवपणति संगहो प्रस्तुत ग्रंथ करणानुयोग से सम्बन्धित है। इसके रचयिता पद्मनन्दी मुनि हैं। पद्मनन्दी ने अपने आपको गुणगणकलित, त्रिदंडरहित, त्रिशल्यपरिशुद्ध बताकर बलनन्दी का शिष्य कहा है। वे वीरनन्दी के शिष्य थे । वारानगर में प्रस्तुत ग्रंथ की रचना हुई जिसकी पहचान कोटा के सन्निकट बारा कस्बे से की जाती है। सिंहसूरि ने लोक विभाग में जम्बु पति का उल्लेख किया है। इससे विद्वानों का अनुमान है कि प्रस्तुत रचना का ग्रंथकाल ११वीं शताब्दी के आस-पास होना चाहिए। जम्बुद्वीपपणत्ति का विषय तिलोयपण्णति से मिलता है। दोनों की अनेक गाथाएँ समान हैं। वट्टकेर के मूलाचार और नेमिचन्द्र के त्रिलोकसार की गाथाएं भी इसमें हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में उपोद्घात, भरत, ऐरावत, वर्ष, शैलनदी, भोगभूमि, सुदर्शन (मेरुपर्वत) मन्दर जिनभवन, देवोत्तरकुरु कक्षाविजय, पूर्वविदेह, अपर विदेह, लवण समुद्र, द्वीपसागर, अधः ऊर्ध्वं सिद्धलोक, ज्योतिलोक और प्रमाण परिच्छेद आदि १३ उद्देशक हैं और २३७६ गाथाएँ हैं । धम्मरसायण इसके रचयिता पद्मनन्दी हैं । इसमें १६३ गाथाओं के द्वारा धर्म का प्रतिपादन किया गया है। आराधना-सार सम्यक्त्व हो जाने के पश्चात् जीवादि पदार्थों के श्रद्धान को आराधना कहा गया है। शिवभूति, सुकुमाल, कोशल, गुरुदत्त, पांडव, श्रीदत्त, सुवर्णभद्र के दृष्टान्त देकर विषय का प्रतिपादन किया गया है। मन को राजा की उपमा दी गई है। जैसे राजा की मृत्यु होने पर सेना निस्तेज हो जाती है वैसे ही मन राजा के शान्त होने पर इन्द्रियों की सेना भी शान्त हो जाती है । मन एक ऊँट तरह है। ऊँट को जिस प्रकार रस्सी से बांधकर रखा जा सकता है वैसे ही मन को ज्ञान रूपी रस्सी से बांधकर रखना चाहिए । मन वृक्ष के समान है राग-द्वेष रूपी शाखाओं को नष्ट करने से और मोह रूपी जल का सिंचन न करने से मन रूपी वृक्ष स्वतः की ही नष्ट हो जायेगा, इसका उपदेश प्रदान किया गया है। जैसे नमक पानी में एकमेक हो जाता है वैसे ही चित्त को धर्मध्यान में लीन कर देना चाहिए ।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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