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दिगम्बर जैन आगम साहित्य : एक पर्यवेक्षण ५६५ जब ज्ञानावरणादि अप्रशस्त कर्मों की फलदान शक्ति उत्तरोत्तर अनंतगुणी हीन होकर उदय को प्राप्त होती है तब उस जीव को प्रथम क्षयोपशम लब्धि होती है। उस लब्धि के प्रभाव से जीव की प्रशस्त कर्म प्रकृतियों के बन्धयोग्य, धर्मानुराग उपयुक्त परिणति होती है, वह विशुद्ध लब्धि है। षद्रव्य, नौ पदार्थ के उपदेष्टा आचार्य आदि के प्रति या उपदिष्ट अर्थ को धारण करने की इच्छा देशना लब्धि है। इन तीनों लब्धियों से सम्पन्न जीव आयुकर्म के अतिरिक्त शेष सप्त कर्मस्थिति को अन्त:कोटाकोटिदेशन्यून कर देता है एवं अप्रशस्त घातिक कर्म के अनुभाव को खण्डित करने के लिए लता एवं दारु के सदृश दो स्थानों में स्थापित करता है। साथ ही अघातीय कर्मों के अनुभाव को नीम और कांजीर के समान विभक्त कर देता है, तब प्रायोग्यलब्धि होती है। इन चारों लब्धियों के पश्चात् भव्य जीव के अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त होने वाले परिणाम करण कहलाते हैं, जो अभव्य जीव को नहीं होते। इस 'करणलब्धि' के अन्तिम समय में जीव प्रथम उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। प्रसंगानुसार गुणस्थान की दृष्टि से विभिन्न प्रकृतियों के नामों का उल्लेख करके बन्ध आदि की हीनता के क्रम को प्रदर्शित किया गया है। चारित्रलब्धि
जब मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्व के साथ देशचारित्र के ग्रहण को तत्पर होता है तब जैसे सम्यक्त्व की प्राप्ति के हेतु अधःप्रवृत्त आदि तीन करणों को करता है वैसे ही देशचारित्र को प्राप्त करने के हेतु तीन करणों को करता है और तीन करणों के अन्तिम समय में वह देशचारित्र को प्राप्त कर लेता है, किन्तु उक्त मिथ्यादृष्टि वेदक (क्षायोपशमिक सम्यक्त्व) के साथ उक्त देशचारित्र के ग्रहण को तत्पर होता है तो अंत:प्रवृत्तिकरण और अपूर्वकरण इन दो परिणामों के अन्तिम समय में वह देशचारित्र को प्राप्त होता है।
सकलचारित्र क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक के रूप में तीन प्रकार का है। जो जीव उपशम सम्यक्त्व के साथ क्षायोपशमिक चारित्र को ग्रहण करने में तत्पर होता है उसकी विधि उपशम सम्यक्त्व के सदृश है। जो वेदक सम्यक्दृष्टि औपशमिक चारित्र को ग्रहण करने में तत्पर होता है उसकी विधि उससे भिन्न है। यहां पर उस सम्बन्ध में विशेष