SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 623
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५९४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा गोम्मटसार यह ग्रंथ दो भागों में विभक्त है-जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड । जीवकाण्ड में ७३३ गाथाएँ हैं और कर्मकाण्ड में ६१२ गाथाएँ हैं। जीवकाण्ड में महाकर्मप्राभूत के सिद्धान्त सम्बन्धी जीवस्थान, क्षुद्रकबन्ध, बन्धस्वामी, वेदनाखण्ड और वर्गणाखण्ड इन पाँच विषयों का निरूपण है। गुणस्थान, जीव-समास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोग इन बीस अधिकारों में जीव की विविध अवस्थाओं का प्रतिपादन किया गया है। 'कर्मकाण्ड' प्रकरण में प्रकृति-समूत्कीर्तन, बंधोदय, सत्व, सत्वस्थान, भंग, त्रिचूलिका, स्थान-समुत्कीर्तन प्रत्यय, भाव चूलिका और कर्मस्थिति रचना इन नौ अधिकारों में कर्म की विभिन्न अवस्थाओं का विश्लेषण किया गया है। प्रस्तुत ग्रंथ पर संस्कृत भाषा में दो टीकाएं उपलब्ध हैं, नेमिचन्द्र द्वारा जीवप्रदीपिका और अभयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती द्वारा मन्द प्रबोधिनी। केशकणि द्वारा कन्नड भाषा में लिखी हुई वृत्ति मिलती है। पं० टोडरमलजी ने सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक वचनिका भी लिखी है। लब्धिसार आत्म-संशुद्धि के लिए पांच प्रकार की लब्धियाँ आवश्यक मानी है। उनमें करण-लब्धि प्रधान है । इस लब्धि के प्राप्त होने पर मिथ्यात्व से मुक्त होकर सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। प्रस्तुत ग्रंथ में दर्शनलब्धि, चारित्रलब्धि और क्षायिक चारित्र ये तीन अधिकार हैं। सम्यगदर्शनलब्धि अधिकार में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति पर चिन्तन करते हुए यह प्रतिपादित किया गया है कि अनादि मिथ्यावृष्टि या सादि मिथ्यादृष्टि जीव चार गतियों में से किसी भी गति में प्रथम-उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। विशेषता यह है कि उसे संज्ञी, पर्याप्तक, गर्भज, विशुद्ध अन्त:करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, परिणामों में उत्तरोत्तर विशुद्धि होनी चाहिए और वह साकार उपयोग वाला होना चाहिए। सम्यक्त्व प्राप्ति के पूर्व उसके उन्मुख होने पर मिथ्यादृष्टि जीव के क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण ये पांच लब्धियां होती हैं। इनमें से चार लब्धियां भव्य और अभव्य दोनों को हो सकती हैं किन्तु करणलब्धि अभव्य को नहीं होती।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy