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५६० जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा को अभूतार्थग्राही और निश्चय को,भूतार्थग्राही कहा है। जब तक व्यवहारनय नहीं है तो निश्चयनय भी नहीं हो सकता। जैसे संसार नहीं है, वैसे मोक्ष भी नहीं हो सकता। जैसे संसार और मोक्ष सापेक्ष हैं वैसे ही निश्चय और व्यवहार परस्पर सापेक्ष हैं। परमतत्त्व का वर्णन दोनों नयों के द्वारा ही परिपूर्ण हो सकता है।
मूलाचार प्रस्तुत ग्रन्थ के रचयिता वट्टकेराचार्य माने जाते हैं। उनके गण और गच्छ के सम्बन्ध में निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं है । पं० जुगलकिशोर मुख्त्यार ने वट्टकेर का अर्थ प्रवर्तक, प्रधान, पद प्रतिष्ठित, या श्रेष्ठ आचारनिष्ठ किया है। उनके अभिमतानुसार 'वट्टकेर' यह कुन्दकुन्दाचार्य का विशेषण है। पं० नाथूराम प्रेमी का भी यह अभिमत है। कितने ही विद्वान् वट्टकेर को कुन्दकुन्दाचार्य से पृथक् आचार्य मानते हैं। क्योंकि कुन्दकुन्द की भाषा से मूलाचार की भाषा भिन्न है । मूलाचार में आवश्यक नियुक्ति, पिण्डनियुक्ति, भक्तपइण्णा, मरण-समाधि आदि श्वेताम्बर ग्रन्थों की गाथाएँ उद्धत की गई हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में १२ अधिकार और १२५२ गाथाएँ हैं। प्रथम मूलगुणाधिकार में महाव्रत, समिति, इन्द्रिय-निरोष, षडावश्यक, केशलुञ्चन, अचेलकत्व, अस्नान, भूमिशयन, अदन्त-धावन, स्थितिभोजन तथा एक बार भोजन का निरूपण है। बृहद्प्रत्याख्यानसंस्तव अधिकार में श्रमण का पापों से मुक्त होकर जीवन के अन्तिम क्षणों में दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन आराधनाओं में स्थित रहकर क्षुधादि परीषहों पर विजय प्राप्त कर निष्कषाय रहने का आदेश किया है । प्रत्याख्यान अधिकार में हिंसक पशु आदि के द्वारा आकस्मिक मृत्यु उपस्थित हो जाय तो श्रमण को कषाय, आहार का त्याग कर समभाव से विचरण का संकेत किया गया है। सम्यक्त्व आचार आदि में दस प्रकार के आचारों का वर्णन है। पंचाचार अधिकार में दर्शनाचार, ज्ञानाचार आदि आचार के पांच भेदों का विस्तार से निरूपण है। स्वाध्याय पर चिन्तन करते हुए आगम और सूत्र ग्रन्थों का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। पिण्डविशुद्धि अधिकार में श्रमणों के आहार सम्बन्धी नियमोपनियमों पर चिन्तन है।
१ समयसार, गाथा १३ २ समयसार, तात्यर्यवृत्ति, पृ०६७