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________________ दिगम्बर जैन आगम साहित्य : एक पर्यवेक्षण ५८६ अन्य कहा जाता है । द्रव्य, गुण और पर्याय में प्रदेश-भेद न होने से वे पृथक् नहीं कहे जा सकते किन्तु अन्य कहे जा सकते है। क्योंकि जो द्रव्य है वह गुण नहीं है और जो गुण है वह द्रव्य नहीं है-इस प्रकार का प्रत्यय होता है। द्रव्य, गुण और पर्याय में भेद होने के बावजूद भी वस्तुत: भेद नहीं है क्योंकि ज्ञानी से ज्ञान गुण को, धनिक से धन के समान बिल्कुल अलग नहीं मान सकते। इसी तरह द्रव्य, गुण और पर्याय का भेदाभेद है। निश्चयनय की दृष्टि से परमाणु ही पुद्गल द्रव्य है और व्यवहारनय की दृष्टि से स्कन्ध को पुद्गल कहना चाहिए। परमाणु के गुण स्वाभाविक हैं और स्कन्ध के गुण वैभाविक हैं। इसी तरह परमाणु का अन्यनिरपेक्ष परिणमन स्वभाव-पर्याय है और परमाणु का स्कन्ध रूप परिणमन अन्य-सापेक्ष होने से विभाव पर्याय है। यहाँ पर अन्य-निरपेक्ष परिणमन को जो स्वभाव पर्याय कहा है उसका सार यह है कि वह परिणमन काल भिन्न निमित्त कारण की अपेक्षा नहीं रखता। क्योंकि सभी प्रकार के परिणमनों में काल कारण है। जैन आगम साहित्य में आत्मा को शरीर से भिन्न और अभिन्न दोनों माना है। जीव को वर्णयुक्त भी कहा है और अवर्ण भी कहा है, नित्य भी कहा है और अनित्य भी, मूर्त भी कहा है और अमूर्त भी कहा है, शुद्ध और अशुद्ध जीव के दोनों रूपों की चर्चा है। आगमोक्त वर्णन को किस दृष्टि से समझना चाहिए आचार्य कुन्दकुन्द ने इसका स्पष्ट रूप से प्रतिपादन किया है। आगम साहित्य में निश्चय और व्यवहार की चर्चा बीज रूप में है। उस वर्णन को विस्तार से समझाने का प्रयास कुन्दकुन्द ने किया है। वस्तु के पारमार्थिक एवं तात्त्विक शुद्ध स्वरूप का ग्रहण निश्चय से होता है और अपारमार्थिक एवं अतात्त्विक अशुद्ध स्वरूप का ग्रहण व्यवहार से होता है। वस्तुतः षट् द्रव्यों में जीव और पुद्गल इन द्रव्यों के सम्बन्ध में सांसारिक जीवों को भ्रम हो जाता है। इस विपर्यास की दृष्टि से कुन्दकुन्द ने व्यवहार १ प्रवचनसार २,१४ २ वही २,१६ ३ नियमसार, २६ ४ नियमसार, २७, २८
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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