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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
सच्चा श्रमणत्व है । यहाँ पर आचार्य ने अनेक दृष्टान्त देकर विषय को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। इसमें भाव की प्रधानता पर ही 'अत्यधिक बल दिया गया है ।
मोक्षप्राभृत
प्रस्तुत ग्रंथ में निर्वाण के स्वरूप पर चिन्तन करते हुए कहा है कि जिस परमात्मा को जानकर निरन्तर अन्वेषणा करते हुए योगीजन 'अव्याबाध, अनन्त, अनुपम सुख को प्राप्त करते हैं वही मोक्ष है। जीव के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ये तीन प्रकार बताए हैं। जो बाह्य इन्द्रियों के विषय में आसक्त रहता है वह बहिरात्मा है, आत्मा को शरीर से पृथक् समझना अन्तरात्मा हैं, और जो कर्म मल से रहित हो चुका है। 'वह परमात्मा है। इसमें १०६ गाथाएं हैं और इन्हीं विषयों पर निश्चय नय की दृष्टि से विस्तारपूर्वक चिन्तन किया है। इसकी अनेक गाथाएँ छायानुवाद के रूप में आचार्यं पूज्यपाद ने समाधितन्त्र में प्रयोग की हैं। द्वादशानुप्रेक्षा
इसमें अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि इन बारह भावनाओं पर विवेचन है । अन्तिम चार गाथाओं में कहा है कि प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, आलोचना और समाधि ये सभी अनुप्रेक्षा से ही संभव है । अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन से ही परम निर्वाण प्राप्त होता है। इसमें ६१ गाथाएँ हैं ।
सुतपाहुड आदि
सुत्तपाहुड में २७ गाथाओं के द्वारा आगम का महत्त्व बताकर उस पर चिन्तन किया गया है । लिङ्गपाहुड में श्रमणधर्म का निरूपण है, इसमें २२ गाथाएँ हैं। शीलपाहुड में बताया है कि शील ही विषय आसक्ति को दूर कर मोक्ष प्राप्ति में सहायक है। जीव दया, इन्द्रिय-दमन, सत्य, अचौर्य ब्रह्मचर्य, सन्तोष, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और तप को शील के अन्तर्गत परिगणित कर वर्णन किया है । रयणसार ग्रन्थ में रत्नत्रय पर विवेचन है । किसी प्रति में १६७ गाथाएं प्राप्त होती हैं और किसी प्रति में १५५ गाथाएँ प्राप्त होती हैं। डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री आदि इसे कुन्दकुन्द की रचना नहीं मानते। सिद्ध भक्ति में १२ गाथाओं के द्वारा सिद्धों के गुण, भेद, सुख, स्थान
१ पूर्वोक्त संस्था से प्रकाशित