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५८४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा श्रद्धा के साथ उसी में स्थिर रहना इसे अभेद रत्नत्रय स्वरूप नियम कहा गया है। आप्त, आगम और तत्त्व के श्रद्धान से जो राग, द्वेष की निवृत्ति होती है वह व्यवहार रत्नत्रय स्वरूप नियम है जो भेद आश्रित है। यह नियम ही मोक्ष का सही उपाय है जिसका परिणाम निर्वाण है। यहाँ पर सर्वप्रथम सम्यकदर्शन के विषयभूत आप्त, आगम और तत्स्व पर चिन्तन करते हुए जीवादि छः द्रव्यों का वर्णन किया है। प्रसंगानुसार पंचमहाव्रत, पंचसमिति, तीन गुप्ति रूप व्यवहार चारित्र का भी निरूपण करते हुए अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु के स्वरूप पर चिन्तन किया गया है।
आत्म-शोधन की दृष्टि से प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रायश्चित्त, परम समाधि, रत्नत्रय और आवश्यक पर विचारणा करते हुए शुद्ध आत्मा के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। ग्रंथ की गाथा संख्या १८६ है। इस पर वि० सं० १३वीं शताब्दी में पद्मप्रभ मलधारी ने टीका की रचना की थी।
दर्शनप्राभूत धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है। जो जीव सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है उसे भ्रष्ट समझना चाहिए क्योंकि वह कदापि मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता। किन्तु जो चारित्र से भ्रष्ट है वह समय पर मुक्त हो सकता है। सम्यग्दर्शन रहित जीव उग्र तपश्चरण भी क्यों न करे किन्तु सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट होने के कारण वह ज्ञान और चारित्र से भी भ्रष्ट है। जो षट् द्रव्य, नौ पदार्थ, पंचास्तिकाय, सप्ततत्त्व इन जिनेश्वर देवों द्वारा प्रतिपादित तत्त्व का श्रद्धान करता है वह व्यवहार दृष्टि से सम्यक्दृष्टि है। निश्च यदृष्टि से आत्मा ही सम्यग्दर्शन है। जो शक्य अनुष्ठान को स्वयं करता है, दूसरों से करवाता है एवं अशक्य अनुष्ठान पर निष्ठा रखता है वह सम्यग्दृष्टि है। इस ग्रंथ की मूल गाथाएँ ३६ हैं। इस पर भट्टारक श्रुतसागर सूरि ने टीका का निर्माण किया है।
चारित्रप्राभूत प्रस्तुत ग्रन्थ में सम्यक्त्वचरण चारित्र और संयमचरण चारित्र-ये
दर्शनप्राभूतसार--पप्रामृतादि संग्रह : भारतीय दिगम्बर जैन ग्रन्षमाला, बम्बई
से प्रकाशित २ पूर्वोक्त ग्रन्थमाला से प्रकाशित