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दिगम्बर जैन आगम साहित्य : एक पर्यवेक्षण ५५३ नौवें अधिकार में सर्वविशुद्ध आत्मा का ज्ञान की दृष्टि से अकर्तृत्व आदि पर प्रकाश डाला गया है। दसवें अधिकार में अनेकान्त दृष्टि से आत्म-स्वरूप पर विवेचन किया गया है। शुद्ध आत्मा का इतना सुन्दर और व्यवस्थित विवेचन किया गया है कि पाठक पढ़कर आत्म-विभोर हो जाता है । प्रस्तुत ग्रन्थ की तुलना उपनिषद् साहित्य से भी की जा सकती है।
पंचास्तिकाय प्रस्तुत ग्रंथ में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश इन पांच अस्तिकायों का निरूपण है। इसमें काल द्रव्य का निरूपण नहीं है । आचार्य ने बहप्रदेशी द्रव्य को अस्तिकाय कहा है। इस ग्रन्थ में द्रव्य लक्षण, द्रव्य के भेद, सप्तभंगी, गुण, पर्याय, काल, द्रव्य एवं सत्ता का अत्यन्त सुन्दर प्रतिपादन किया गया है। यह ग्रंथ दो अधिकारों में विभक्त है-पहले अधिकार में द्रव्य, गुण और पर्यायों पर चिन्तन किया गया है; द्वितीय अधिकार में पुण्य, पाप, जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा एवं मोक्ष इन पदार्थों पर चिन्तन कर मोक्ष-मार्ग पर प्रकाश डाला गया है। द्रव्य के स्वरूप को समझने के लिए यह ग्रंथ बहुत ही उपयोगी है। आचार्य अमृतचन्द्र की टीका के अभिमतानुसार इसमें १७३ गाथाएं हैं तो आचार्य जयसेन ने अपनी टीका में १८१ गाथाएँ मानी हैं।
नियमसार ___ जो कार्य नियमतः किया जाना चाहिए वह नियम कहलाता है। वह नियम ज्ञान, दर्शन और चारित्र स्वरूप है। इस नियम के साथ जो 'सार' शब्द का प्रयोग किया गया है वह विपरीतता के परिहारार्थ है। प्रस्तुत ज्ञान, दर्शन, चारित्र स्वरूप नियम भेद और अभेद स्वरूप नियम की दृष्टि से दो प्रकार का है। शुद्ध ज्ञान चेतना परिणाम विषयक ज्ञान एवं
१ (क) पंचास्तिकाय वृत्ति सहित-प्रकाशक : परमश्रत प्रभावक मण्डल बम्बई:
(प्र. वर्ष वि. सं. १९७२) (ख) इसका अंग्रेजी टीका के साथ जैन पब्लिशिंग हाउस, आगरा
(प्र. व. ई० सन् १९२०) अनुवादक : प्रो. चक्रवर्ती २ (क) नियमसार-जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई .
(प्र. क. ई. सन् १९१६) (ख) उग्रसेन कृत अंग्रेजी अनुवाद अजिताश्रम, लखनऊ (सन् १९३१)