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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
अधिकारों में विभक्त है। प्रथम अधिकार में स्व-समय पर समय, शुद्ध नय, आत्म-भावना और सम्यक्त्व का निरूपण है। जीव को काम भोग सम्बन्धी कथा अत्यन्त सुलभ है पर आत्मा का एकत्व बहुत ही दुर्लभ है। एकत्व - विभक्त आत्मा को निजानुभूति से ही जान सकते हैं। प्रमत्त अप्रमत्त दोनों दशाओं में जीव पृथक् ज्ञायकभाव मात्र है । व्यवहार की दृष्टि से ज्ञानी के दर्शन, ज्ञान, चारित्र कहे जा सकते हैं, किन्तु निश्चयनय की दृष्टि से ज्ञानी एक शुद्ध ज्ञायक मात्र ही है। यहाँ पर व्यवहारनय को अभूतार्थ और निश्चयrय को भूतार्थं कहा है।
द्वितीय अधिकार में कर्तृ कर्म का वर्णन है। इसमें आसव, बन्ध, प्रभृति की पर्यायों पर चिन्तन किया गया है। मिध्यात्व, अज्ञान और अवि-रति ये तीन परिणाम आत्मा के अनादि हैं। जब इन तीन प्रकार के परिणामों का कर्तृत्व होता है तब पुद्गल द्रव्य स्वतः ही कर्म रूप परिणमन करता है, पर द्रव्य के भाव का जीव कभी भी कर्ता नहीं है ।
तीसरे पुण्य-पाप अधिकार में शुभ, अशुभ कर्मों के स्वभाव का वर्णन है । अज्ञानी के द्वारा किये गये व्रत, नियम, शील, तप ये मोक्ष के कारण नहीं हैं। मोक्ष का कारण है—-जीव, अजीव आदि पदार्थों का सही श्रद्धान, उनका अधिगम एवं राग-द्वेष आदि भावों का परित्याग ।
चौथे अधिकार में आस्रव का निरूपण है। मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये आस्रव के मुख्य कारण हैं। सत्य तथ्य यह है कि रागद्वेष मोह रूप जो परिणाम हैं वे आस्रव हैं। ज्ञानी में आस्रव का अभाव है। उसमें राग-द्वेष, मोह रूप परिणाम उत्पन्न नहीं होता जिससे आस्रव प्रत्ययों का अभाव है ।
पाँचवें अधिकार में संवर का विश्लेषण है । संवर का मूल भेदविज्ञान है । प्रस्तुत अधिकार में संवर के क्रम का भी वर्णन है ।
छठे अधिकार में निर्जरा पर चिन्तन किया गया है। द्रव्य व भाव रूप निर्जरा पर विस्तार से विश्लेषण है। ज्ञानी कर्मों के मध्य में रहता हुआ भी कर्मों से उसी प्रकार अलिप्त रहता है जैसे जल मध्य कमल । किन्तु अज्ञानी जीव कर्म रज से लिप्त रहता है ।
सातवें अधिकार में बंध पर चिन्तन किया गया है। बंध का मूल कारण राग और द्वेष है।
आठवें अधिकार में मोक्ष का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है।