________________
कषायपाहुड (कषायप्राभृत)
प्रस्तुत ग्रन्थ आचार्य गुणधर के द्वारा रचित है । इस ग्रन्थ का दूसरा नाम 'पेज्जदोसपाहुड' भी है। "पेज्ज' शब्द का अर्थ है 'राग' और 'दोस' का अर्थ है द्वेष । राग और द्वेष ये दोनों कषाय स्वरूप ही है । अत: इसका दूसरा नाम 'पेज्जदोसपाहुड' रखा गया है। कितने ही दिगम्बर विद्वान् इसका रचना काल विक्रम की प्रथम शताब्दी के पूर्व या आसपास मानते हैं।
___ यह ग्रन्थ सूत्र रूप गाथाओं में निर्मित है। समस्त गाथाओं की संख्या २३३ है जिसमें मूल गाथा १८० है और भाष्य गाथा ५३ है । ये गाथा बहुत ही क्लिष्ट व अपने आप में अर्थगांभीर्य को लिये हुए हैं। षट्खण्डागम में आठों कर्मों का विस्तार से विवेचन है तो प्रस्तुत कषायपाहुड में केवल मोहनीयकर्म का ही विस्तार से चिन्तन किया गया है। इसमें पेज्जदोसविभक्ति, स्थितिविभक्ति, अनुभागविभक्ति, प्रदेशविभक्ति, झीणाझीणस्थित्यन्तिक, बन्धक-अधिकार, वेदक अधिकार, उपयोग अधिकार, चतु:स्थान अधिकार, व्यञ्जन अधिकार, दर्शनमोहोपशमना अधिकार, दर्शनमोहक्षपण अधिकार, संयमासंयम लब्धि अधिकार, संयम-लब्धिअधिकार, चारित्रमोहोपशमना, चारित्रमोहक्षपणा आदि पन्द्रह अधिकार हैं। इनमें प्रारम्भ के आठ अधिकारों में संसार के कारणभूत मोहनीय कर्म की और अन्तिम सात अधिकारों में आत्म-परिणामों के विकास से शिथिल होते हुए मोहनीय कर्म की विविध दशाओं का वर्णन है। इस ग्रन्थ पर विक्रम की छठी शताब्दी में होने वाले आचार्य यतिऋषभ ने ६००० श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र और आचार्य वीरसेन एवं उनके शिष्य आचार्य जिनसेन ने साठ हजार श्लोक प्रमाण जयधवला नाम की टीका रची। प्रस्तुत टीका के २०,००० श्लोक रचने के पश्चात् आचार्य वीरसेन