SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 603
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५७४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा अनाहारक चौदह ही स्थानों में होते हैं, किन्तु विग्रहगति (अन्तरालगति जीव), समुद्घात करते हुए केवली, अयोगि केवली और सिद्ध ये अनाहारक हैं। इस प्रकार समान रूप से केवली-भूक्ति का वर्णन दोनों ही ग्रन्थों में प्रज्ञापना' की अनेक गाथाएँ षट्खण्डागम में कुछ शब्दों के हेर फेर के साथ मिलती है। यहाँ तक कि आवश्यकनियुक्ति और विशेषावश्यक भाष्य की गाथाओं से भी मिलती है। इसी प्रकार प्रज्ञापना और षटखण्डागम इन दोनों का प्रतिपाद्य विषय एक है, दोनों का मूल स्रोत भी एक है तथापि भिन्न-भिन्न लेखक होने से दोनों के निरूपण की शैली पृथक-पृथक रही है। कहीं-कहीं पर तो षट्खण्डागम से भी प्रज्ञापना का निरूपण अधिक व्यवस्थित रूप से हुआ है। मेरा तात्पर्य यह नहीं है कि षट्खण्डागमकार ने प्रज्ञापना की नकल की है पर यह सत्य है कि प्रज्ञापना की रचना पूर्व होने से उसका प्रभाव षट्खण्डागम के रचनाकार पर अवश्य ही पड़ा होगा। १ समयं बक्कताणं, समयं तेसि सरीर निव्वत्ती। समयं आणुग्गहणं, समयं ऊसास-नीसारे ॥ एक्कस्स उजं गहणं, बहूण साहारणाणं तं चेव । जं बहुयाणं गहणं समासओ तं पि एगस्त ।। साहारणमाहारो, साहारणमाणुपाणगहणं च। साहारणजीवाणं साहारणलक्षणं एवं ।। -प्रशापना, गा०६९-१०१ तुलना करेंसाहारणमाहारो, साहारणमाणपाणगहणं च । साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं मणिदं ।। एयस्स अणुग्गहणं बहणसाहारणाणमेयस्स । एयस्स जं बहूणं समासदो तं पिहोदि एयस्स ।। आवश्यक नियुक्ति-गा० ३१ से और विशेषावश्यकमाण्य गा०६०४ से तुलना करेंषट्खण्डागम-पुस्तक १३, गाथा सुत्र ४ से ६, १२, १३, १५, १६ ।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy