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________________ दिगम्बर जैन आगम साहित्य : एक पर्यवेक्षण ५७३ (क्षुद्रकबंध) नामक द्वितीय खण्ड में बन्धक जीव का विचार चौदह मार्गणास्थानों के द्वारा किया गया है। जिसकी शैली प्रज्ञापना से अत्यधिक मिलती-जुलती है। प्रज्ञापना और षट्खण्डागम इन दोनों में आहारक एवं अनाहारक जीवों के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए सयोगिकेवली के द्वारा आहार ग्रहण करने का वर्णन किया है। अयोगिकेवली एवं समुद्घात करते समय सयोगि केवली आहार ग्रहण नहीं करते । प्रज्ञापना' में गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की -- भगवन् ! केवली के आहार का कितना समय होता है ? भगवान ने समाधान दिया - जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशन्यून करोड़पूर्व । पुन: जिज्ञासा प्रस्तुत की—क्या भगवन् ! सयोगि भवस्थ केवली अनाहारक है ? समाधान दिया गया -- गौतम ! अजधन्य उत्कृष्ट तीन समय तक वह अनाहारक है । अयोगि भवस्थ केवली के सम्बन्ध में जिज्ञासा की गई कि क्या वे अनाहारक हैं? समाधान किया गया हे गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक वे अनाहारक हैं। षट्खण्डागम में भी लिखा है कि आहारमागंणा की दृष्टि से जीव आहारक और अनाहारक दोनों ही प्रकार के होते हैं। आहारक जीव एकेन्द्रिय से लेकर सयोगि केवली पर्यन्त होते हैं। -सूत्र १३६६ १ 'केवलि आहारए णं भंते ! केवलि आहारए ति कालतो केवचिरं होई ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत, उक्कोसेणं देणं पुण्वकोटि । सजोगि भवत्यकेवल अणाहारए णं भंते ! गोमा ! अजहण्णमणुक्कोसेणं तिष्णि समया । अगमवस्यकेवल अणाहारए णं पुच्छा । गोमा ! जहणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहृत्त पद्मवणा-सू० १३७२-७३ २ आहराणुवादेण अत्थि आहारा अणाहारा आहारा एयंदिय-प्पहूडि जाव । संजोगकेवलि त्ति । - जीवद्वान संतपदवणा केवलीणं वा समुग्धादगदाणं - षट्खण्डागम, सूत्र १७५ से १७७ अणाहारा चदुसु द्वाणेसु विग्गहबइ- समावण्णाणं अजोगिकेवली सिद्धा वेदि ।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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