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दिगम्बर जैन आगम साहित्य : एक पर्यवेक्षण
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नियुक्ति में भी किया गया है। उसके पश्चात् निक्षेप आदि सोलह अनुयोगद्वारों के आधार से कर्म की मूल एवं उत्तर प्रकृतियों पर चिन्तन किया गया है।
बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान ये कर्म से सम्बन्धित चार अवस्थाएं हैं। द्रव्य का द्रव्य के साथ या द्रव्य-भाव का जो संयोग या समवाय होता है, वह बन्ध है। प्रस्तुत बन्ध का कर्ता जो जीव है वह बन्धक है। बन्ध के योग्य जो पुद्गल द्रव्य हैं वे बन्धनीय हैं। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये बन्धभेद बन्धविधान कहलाते हैं। प्रस्तुत खण्ड में बन्ध, बन्धक और बन्धनीय इन तीन की मुख्य रूप से प्ररूपणा की गई है। बन्ध-विधान का विस्तार से विवेचन छठे महाबन्ध खण्ड में किया गया है।
इन पाँच खण्डों पर वीरसेन आचार्य ने धवला नामक टीका का निर्माण किया जिसका श्लोक प्रमाण ७२००० है जो शक सं०७३८ (वि० सं०८७३) में परिसमाप्त हुई। (६) महाबन्ध
प्रस्तुत खण्ड में प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन पूर्व सूचित बन्ध के चार भेदों की विस्तार से चर्चा की गई है। इस पर कोई टीका नहीं है । भूतबलि ने विषय को इतने विस्तार से लिखा है कि उस पर टीका लिखने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं की गई। इस खण्ड का ग्रन्थ प्रमाण ३०,००० श्लोक प्रमाण है। जबकि ५ खण्डों का मूल ग्रंथ प्रमाण ६००० श्लोक है।
__प्रस्तुत ग्रंथ की भाषा शौरसेनी प्राकृत है। शैली परिमार्जित और प्रौढ़ है । यह दिगम्बर परम्परा का आद्य ग्रन्थ है।
षट्खण्डागम और प्रज्ञापना : एक तुलना . षट्खण्डागम और प्रज्ञापनासूत्र का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन
१ उसी संस्था से १३ व १४ दो जिल्दों में प्रकाशित । २ उक्त संस्था से ही मूल ग्रन्थ के साथ १४ जिल्दों में प्रकाशित । ३ उक्त खंड अकायिक, अजघन्यद्रव्यवेदना, अधःकर्म, आगमभाव प्रकृति, आगम
मावबंध, आलापनबंध और आहारद्रव्यवर्गणा के रूप में भारतीय ज्ञानपीठ काशी से सात जिल्दों में प्रकाशित ।