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________________ ५६८ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा (३) बन्धस्वामित्वविचय मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग से जीव और कर्म पुद्गलों का जो एकता रूप परिणमन होता है, वह बन्ध है। किन कर्मप्रकृतियों के बन्ध में कौन जीव स्वामी है और कौन जीव स्वामी नहीं है इस पर प्रथमत: गुणस्थान के द्वारा और उसके बाद मार्गणाओं के द्वारा चिन्तन किया है। जिस गुणस्थान तक विवक्षित प्रकृतियों का बन्ध होता है उसके पश्चात् बन्ध नहीं होता उन प्रकृतियों का वहाँ तक बन्ध और उसके पश्चात् के गुणस्थानों में उनकी बन्धव्युच्छिति समझना चाहिए। प्रश्न और उत्तर के रूप में इन सभी प्रश्नों पर विचार किया गया है। (४) देवनाखण्ड प्रस्तुत खण्ड के प्रारम्भ में ४ सूत्रों द्वारा मंगलाचरण किया गया है। उसके पश्चात् अग्रायणीय पूर्व के अन्तर्गत पाँचवीं अधिकार विशेष वस्तु के चतुर्थ प्राभृत मूर्त कर्मप्रकृति-प्राभृत, कृति वेदना आदि २४ द्वारों का निर्देश कर नामकृति, स्थापनाकृति, द्रव्यकृति, गणनाकृति, ग्रंथकृति, करणकृति और भावकृति इन सात कृतियों पर विवेचन किया गया है। उसके पश्चात बेदना-निक्षेप, बेदनानय, विभाषणता, वेदना-नामविधान, वेदना-द्रव्यविधान, वेदना-क्षेत्रविधान, वेदनाकालविधान, वेदना-भावविधान, वेदना-प्रत्ययविधान, वेदनास्वामित्व विधान, वेदना-वेदनविधान, वेदनागतिविधान, वेदना-अनन्त रविधान, वेदना-सन्निकर्षविधान, वेदना-परिणामविधान, वेदना-भावाभावविधान, वेदना-अल्पबहुत्वविधान इन सोलह अनुयोगद्वारों के माध्यम से वेदना की विचारणा की गई है। (५) वर्गणा - प्रारम्भ में नाम, स्थापना आदि तेरह प्रकार से स्पर्श पर विचारणा की गई है। यह विचारणा स्पर्शनिक्षेप, स्पर्श-नयविभाषणता, अनुयोगद्वारों के माध्यम से की गई है। अनन्तर नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, समवोदानकर्म, अधःकर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म, क्रियाकर्म और भावकर्म इन दस कर्मों पर विवेचन है। इन कर्मों का विश्लेषण आचारान १ वही संस्था, जिल्द आठवां । २ वही संस्था, जिल्द नौ से बारह तक । ३ आचारांगनियुक्ति, गाथा १९२-१६३, पृ० ८३
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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