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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
विद्वान् इसका रचना काल विक्रम की प्रथम शताब्दी मानते हैं। यह ग्रन्थ छह खण्डों में विभक्त होने से षट्खण्डागम नाम से विश्रुत है । वे छह खण्ड ये हैं- जीवस्थान, क्षुद्रकबन्ध, बन्धस्वामित्वविचय, वेदना, वर्गणा और महाबन्ध । इनमें से प्रथम खण्ड जीवस्थान के अन्तर्गत सत्प्ररूपणा के रचयिता आचार्य पुष्पदन्त हैं और शेष के रचयिता आचार्य भूतबलि हैं ।
इस विराट विश्व में यह संसारी प्राणी कभी नरक की दारुण वेदना का अनुभव करता है तो कभी स्वर्गीय सुखों के सागर पर तैरता है । कभी कूकर-शुकर बनकर गली-कूंचों में गंदगी के लिए छटपटाता है तो कभी मनुष्य बनकर भोगों के पीछे पागल की तरह भटकता है । प्रतिपलप्रतिक्षण वह सुख प्राप्त करने का प्रयास करता है किन्तु सुख के स्थान पर दुःख का ही उसे अधिक अनुभव करना पड़ता है। आधि-व्याधि और उपाधि से जीवन जर्जरति हो रहा है। उस दुःख का मूल कारण कर्म है । कर्म से ही बन्ध होता है । बन्ध में भी कषाय की तीव्रता और मन्दता होती है जिससे स्थिति व अनुभाग होता है। जैसे एक आम का फल समय पर पककर भोक्ता को मिठास व खटाई का अनुभव कराता है वैसे ही कर्म भी अपनी स्थिति के अनुसार उदय को प्राप्त होने पर सुख-दुःख रूप फल प्रदान करते हैं। जैसे फल को पाल आदि में रखकर समय के पूर्व ही पका दिया जाता है वैसे ही तप आदि से कर्म को भी स्थिति पूर्ण होने से पहले ही उदय को प्राप्त करा दिया जाता है और श्रेष्ठ अनुष्ठान से नूतन कर्म बन्धन को भी रोका जा सकता है। प्राणी सुख-दुःख का निर्माता स्वयं है । अन्य किसी भी माध्यम की आवश्यकता नहीं है । जो मुमुक्षु साधक शरीर व आत्मा के भेद का अनुभव करता है वह संयम साधना से मुक्ति का वरण करता है । यही षट्खण्डागम का मूल प्रतिपाद्य विषय है।
(१) जीवस्थान
यह प्रथम खण्ड है । कर्म के उदय, उपशम, क्षयोपशम और क्षय के द्वारा जो जीव की परिणति होती है वह गुणस्थान है। मिथ्यात्व, सासादन के रूप में उनके चौदह प्रकार हैं। जिन अवस्था विशेषों से जीवों का मार्गेण या अन्वेषण किया जाता है वे अवस्थाएँ मार्गणा हैं । वे चौदह प्रकार की हैं-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार । प्रकृत जीवस्थान में कौनसा