________________
५६४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
यह पूर्ण सत्य है कि प्रारम्भ में सचेलत्व और अचेलत्व को लेकर किसी भी प्रकार का परस्पर मत-भेद नहीं था। आचार्य कुन्दकुन्द के समय वह विवाद बहुत ही उग्र हो गया जिसका उल्लेख हमें षट्प्राभूत ग्रंथ में मिलता है। इस विवाद को मिटाने के लिए समय-समय पर प्रयास भी होते रहे । यापनीय संघ श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दोनों परम्पराओं का मिला-जुला रूप था। इस संघ के श्रमण श्वेताम्बर मान्यता को मानने पर भी अचेलक रहते थे। उनका स्त्री-मुक्ति में भी विश्वास था।
आचाराङ्गवृत्ति में लिखा है कोई श्रमण दो वस्त्र रखता है और कोई तीन और कोई एक और कोई अचेलक ही रहता है तो परस्पर एक-दूसरे की अवज्ञा न की जाय। यह आचार-भेद शारीरिक शक्ति-धति के उत्कर्ष-अपकर्ष पर आधृत है अतः सचेल श्रमण अचेल श्रमणों की अवज्ञा न करें और अचेल श्रमण सचेल श्रमणों को अपने से हीन न मानें। इस कथन में स्पष्ट रूप से समन्वय की दृष्टि झलक रही है।
जहाँ तक मूल सिद्धान्तों का प्रश्न है वहाँ तक हमारी दृष्टि से कोई विशेष मतभेद नहीं है। भक्तपरिज्ञा, मरणसमाधि, पिण्डनियुक्ति, आवश्यकनियुक्ति, बृहत्कल्पभाष्य प्रभृति श्वेताम्बर ग्रन्थों की गाथाएं भगवती आराधना, मूलाचार आदि दिगम्बर ग्रंथों में अक्षरश: मिलती हैं।
दिगम्बर मान्यतानुसार आगम साहित्य विच्छिन्न हो गया है किन्तु दिगम्बर ग्रंथों में श्वेताम्बर परम्परा मान्य आगमों के नाम मिलते हैं। श्वेताम्बर परम्परा की तरह दिगम्बर परम्परा भी अंग-साहित्य ग्रंथों की रचना मानती है। दोनों ही परम्पराएँ दृष्टिवाद के पांच भेद स्वीकार करती हैं।
षट्झामृत, पृ०६७ जो वि दुवत्य तिवत्यो, एमेण अचेलगो व संथरइ । ण हु ते हीलंति परं, सम्वे पिय ते जिणाणाए ॥१॥ जे खलु विसरिसकप्पा, संघयणधिइयादि कारणं पप्प । णऽवमन्नइ ग य हीणं, अप्पाणं मन्नई तेहिं ॥२॥ सब्वे वि जिणाणाए, जहाबिहिं कम्म खवणट्टाए । विहरंति उज्जया खल, सम्म अभिजाणइ एवं ॥३॥
--आचारांगवृत्ति