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३० जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
उत्तराध्ययन का दूसरा अध्ययन भी अंग प्रभव माना जाता है। नियुक्तिकार भद्रबाहु के मतानुसार वह कर्मप्रवाद पूर्व के सत्रहवें प्राभूत से उद्धृत है।
इनके अतिरिक्त आगमेतर साहित्य में विशेषतः कर्म साहित्य का बहुत सा भाग पूर्वोद्धृत माना जाता है।
निर्यहण कृतियों के सम्बन्ध में यह स्पष्टीकरण करना आवश्यक है कि उसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थंकर हैं, सूत्र के रचयिता गणधर हैं और जो संक्षेप में उसका वर्तमान रूप उपलब्ध है उसके कर्ता वही हैं जिन पर जिनका नाम अंकित या प्रसिद्ध है। जैसे दशवकालिक के शय्यंभव; कल्प, व्यवहार, निशीथ और दशाश्रुतस्कन्ध के रचयिता भद्रबाहु हैं।
जैन अंग-साहित्य की संख्या के सम्बन्ध में श्वेताम्बर और दिगम्बर सभी एकमत हैं। सभी अंगों को बारह स्वीकार करते हैं। परन्तु अंगबाह्य आगमों की संख्या के सम्बन्ध में यह बात नहीं है, उसमें विभिन्न मत हैं। यही कारण है कि आगमों की संख्या कितने ही ८४ मानते हैं, कोई-कोई ४५ मानते हैं और कितने ही ३२ मानते हैं।
नन्दीसूत्र में आगमों की जो सूची दी गई है, वे सभी आगम वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज मूल आगमों के साथ कुछ नियुक्तियों को मिलाकर ४५ आगम मानता है और कोई ८४ मानते हैं। स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा बत्तीस को ही प्रमाणभूत मानती है। दिगम्बर समाज की मान्यता है कि सभी आगम विच्छिन्न हो गये हैं। ४५ आगमों के नाम अंग उपांग
छह मूल सूत्र आचार औपपातिक
आवश्यक राजप्रश्नीय
दशवैकालिक स्थान जीवाभिगम
उत्तराध्ययन
सूत्रकृत
कम्मप्पवाय पुब्वे सत्तरसे पाहुडंमि जं सुत्तं । सणयं सोदाहरणं तं चेव इहपि णायव्वं ॥
--उत्तराध्ययन नियुक्ति गा०६६ २ (क) तत्त्वार्थ सूत्र १/२०, श्रुतसागरीय वृत्ति ।
(ख) षट्खंडागम (धवला टीका) खण्ड १, पृ० ६, बारह अंगगिज्मा