________________
५५० जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा जीवन में सर्पयुगल सम्बन्धी घटना तथा भगवान के मुखारविन्द से महामंत्र सुनाने की घटना श्वेताम्बर चरित्र ग्रन्थों से विपरीत है।"
कल्पलता - इस टीका के रचयिता समयसुन्दरगणी हैं। विक्रम सं० १६६६ के आस-पास उन्होंने यह रचना की है। वृत्ति का ग्रन्थमान ७७०० श्लोक प्रमाण है। हर्षवर्धन ने इस टीका का संशोधन किया है। लेखक ने खरतरगच्छीय मान्यताओं को लक्ष्य में रखकर टीका निर्माण करने का संकल्प किया है।
कल्पसूत्रटिप्पमक इसके रचयिता आचार्य पृथ्वीचन्द्रसूरि हैं। उन्होंने टिप्पण के अन्त में अपना परिचय दिया है। वे देवसेनगणी के शिष्य हैं। देवसेनगणी के गुरु यशोभद्र हैं और वे राजा शाकंभरी को प्रतिबोध देने वाले धर्मघोष सूरि के शिष्य हैं। धर्मघोष सूरि के गुरु चन्द्रकुलावतंसक आचार्य शीलभद्रसूरि के नाम से प्रसिद्ध हैं। पं० मुनिश्री पुण्यविजयजी के अभिमता. नुसार वे चौदहवीं शताब्दी में होने चाहिए । श्लोक परिमाण ६८५ है।
कल्पप्रदीप • इस टीका के रचयिता संघविजयगणी हैं।
१ तओ भगवया णिययपुरिसवयणेण दवाविओ से पंचणमोक्कारो पच्चक्खाणं च, पडिच्छियं तेण ।
-उत्पन्न महापुरिस परिय, पृ. २६२ २ चन्द्रकुलाम्बरशशिनश्चारित्रश्रीसहस्रपत्रस्य ।
श्रीशीलभद्रसूरेगुणरत्नमहोदधेः शिष्यः ॥१॥ अभवद् वादिमदहरषट्तम्मिोजबोधनदिनेशः । श्रीधर्मघोषसूरिबोधितशाकम्भरीनृपतिः
॥२॥ चारित्राम्भोधिशशी त्रिवर्गपरिहारजनितबुधहर्षः। . दशितविधिः शमनिधिः सिद्धान्तमहोदधिप्रबरः ॥३॥ बभूव
श्रीयशोभद्रसूरिस्तच्छिष्यशेखरः । तत्यादपद्ममधुपोऽभूच्छीदेवसेनगणिः
॥४॥ टिप्पनकं पर्युषणाकल्पस्यालिखदवेक्ष्य शास्त्राणि । तच्चरणकमलमधुपः श्रीपृथ्वीचन्द्रसूरिरिदम् ।।५।। इह यद्यपि न स्वधिया विहितं किञ्चित् तथापि बुधवगैः। संशोध्यमधिकमूनं यद् भणितं स्वपरबोधाय ॥६॥
-कल्पसूत्र टिप्पनकम्, पृ० २३-पुण्यविजयनी द्वारा सम्पावित