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आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य
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कल्पसुबोधिका इस टीका के रचयिता उपाध्याय विनयविजय जी हैं। विक्रम सं० १६९६ में यह टीका निर्मित की गई है। पूर्व की सभी टीकाओं से प्रस्तुत टीका विस्तृत है। भाषा की सरलता एवं विषय की सुबोधता के कारण अन्य टीकाओं से अधिक लोकप्रिय हुई है। कल्पकिरणावली और कल्पदीपिका टोकाओं का खण्डन-मण्डन भी यत्र-तत्र किया गया है। टीका का
श्लोक परिमाण ५४०० है। प्रशस्ति से स्पष्ट है टीका का संशोधन उपाध्याय , भावविजयजी ने किया था।
कल्पकौमुदी इस टीका के लेखक उपाध्याय शान्तिसागरजी हैं। विक्रम सं० १७०७ में उन्होंने यह टीका पाटण में लिखी । श्लोक संख्या ३७०७ है। टीका में उपाध्याय विनयविजयजी की कट आलोचना की गई है। उपाध्यायजी ने सुबोधिका टीका में जो कल्पकिरणावली टीका का खण्डन किया है, उसी का प्रत्युत्तर इसमें दिया गया है।
कल्पव्याख्यानपद्धति इसके संकलनकार वाचक श्री हर्षसार के शिष्य श्री शिवनिधान गणी हैं। यह अपूर्ण है। मुनिश्री कल्याणविजयजी के अभिमतानुसार इसकी रचना १७वीं शताब्दी में होनी चाहिए।
कल्पद्र मकलिका इस टीका के रचयिता खरतरगच्छीय उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभ हैं। टीका में रचनाकाल का निर्देश नहीं किया गया है। भगवान पाश्व के
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१ तस्य स्फुरदुरुकीतर्वाचकवरकीतिविजयपूज्यस्य ।
विनयविजयो विनेयः सुबोधिका व्यरचयत् कल्प ॥१२॥ समशोधयंस्तथैनां पण्डितसंविग्नसहृदयावतंसाः । श्रीविमलहर्षवाचकवंशे मुक्तामणिसमानाः ॥१३॥ धिषणानिर्जितषिषणाः सर्वत्र प्रसृतकीतिकपूराः ।। श्रीमावविजयवाचककोटीराः शास्त्रवसुनिकषाः ॥१४॥ रसनिधिरसशशिवर्षे ज्येष्ठे मासे समुज्ज्वले पक्षे । गुरुपुष्ये यत्नोऽयं सफलो जज्ञे द्वितीयायाम् ॥१५॥
श्रीरामविजयपण्डितशिष्यश्रीविजयविबुधमुख्यानाम् । ३. अभ्यर्थनापि हेतुर्विज्ञेयोऽस्याः " कृती विवृतेः ॥१६॥