________________
५४८ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा लगभग है । भाषा प्रौढ़ है। कहीं-कहीं अनागमिक वर्णन भी आ गया है। इन्होंने भगवान महावीर के षट् कल्याणकों की चर्चा भी की है।
कल्पकिरणावली इस टीका के निर्माता तपागच्छीय उपाध्याय श्री धर्मसागर हैं। विक्रम संवत् १६२८ में इसका निर्माण हुआ है। श्लोक परिमाण ४५१४।। है। इस टीका की परिसमाप्ति राधनपुर में हुई है। इतिवृत्त सम्बन्धी अनेक भूलें टीका में दृष्टिगोचर होती हैं और साथ ही सन्देहविषौषधि टीका का स्पष्ट प्रभाव भी परिलक्षित होता है।
प्रदीपिकावृत्ति इसके टीकाकार पन्यास संघविजय हैं। टीका का परिमार्जन उपाध्याय धनविजय ने १६८१ में किया था । श्लोक परिमाण ३२५० है। टीका की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि लेखक खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति से अलग-थलग रहा है। पूर्व टीकाओं की तरह इस टीका में भी कुछ स्थलों पर श्रुटियाँ अवश्य हुई हैं।
कल्पदीपिका इस टीका के लेखक पन्यास जयविजयजी हैं और संशोधनकर्ता हैं भावबिजयगणी। विक्रम सं०. १६७७ की कार्तिक शुक्ला सप्तमी को यह टीका समाप्त हुई है । लेखक ने प्रशस्ति में अपने गुरु का नाम उपाध्याय विमल हर्ष दिया है । श्लोक परिमाण ३४३२ है । भाषा प्राञ्जल है । अपने विरोधी मन्तव्यों का खण्डन भी किया है पर मधुरता एवं शिष्टता के साथ और तर्कसंगत । पाठकों को वह खण्डन अखरता नहीं है।
......कल्पप्रवीपिका. .. . इस टीका के रचयिता संघविजयजी हैं। विक्रम सं० १६७६ में यह टीका समाप्त हुई है। १ प्रबन्ध पारिजात : मुनि कल्याणविजय, पृ० १५७ २. अनुष्टुमोऽष्ट चत्वारिंशच्छतानि च चतुर्दश।
षोडशोपरि वर्णाश्च, ग्रन्थमानमिहोदितम् ।। -कल्पकिरणावली ३ प्रणम्य निखिलान् सूरीन्, स्वगुरु सततोदयम् । ... कुर्वे . स्वबोधविधये, सुगमाकल्पदीपिकाम् ॥२॥ ४ प्रत्यक्षरं गणनया ग्रन्थमानं शताः स्मृताः ।।
चतुष्पञ्चाशदेतस्यां वृत्तो. सूत्रसमन्वितम् ।। ... ..