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________________ arit at storeमक साहित्य ५३१ रूप व्यवहार - आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत रूप से पाँच प्रकार का है । चूर्णिकार ने पाँचों प्रकार के व्यवहार को करण कहा है। भाष्य में सूत्र, अर्थ, जीत, कल्प, मार्ग, न्याय, एप्सितव्य, आचरित और व्यवहार इनको एकार्थक माना है। जो गीतार्थ हैं उन्हीं के लिए व्यवहार का उपयोग है। जो स्वयं व्यवहार के मर्म को जानता हो और अन्य व्यक्तियों को व्यवहार के स्वरूप को समझाने की क्षमता रखता हो वह गीतार्थ है। इसके विपरीत अगीतार्थं है । अगीतार्थं न स्वयं व्यवहार के स्वरूप को जानता है और न वह अन्य को समझाने की क्षमता ही रखता है । प्रायश्चित्त प्रदाता और प्रायश्चित्त संग्रहण करने वाला दोनों गीतार्थ होने चाहिए। प्रायश्चित्त के प्रतिसेवना, संयोजना, आरोपणा और परिकुंचना ये चार अर्थ हैं । प्रतिसेवना रूप प्रायश्चित्त के आलोचना, प्रतिक्रमण प्रभृति दस प्रकार बताये गये हैं, जिन पर विशेष विस्तार से विवेचन है । प्रायश्चित्त के स्वरूप के सम्बन्ध में हम पूर्व पृष्ठों में विस्तार से प्रकाश डाल चुके हैं। प्रथम उद्देशक में प्रतिसेवना के मूल प्रतिसेवना और उत्तरप्रतिसेवना ये दो प्रकार बताये गये हैं। मूलगुणातिचार प्रतिसेवना मूल गुणों के प्राणातिपात, मृषावाद आदि पाँच प्रकार के अतिचारों के कारण से पाँच प्रकार की है। उत्तरगुणातिचार प्रतिसेवना दस प्रकार की है । उत्तरगुण अनागत, अतिक्रान्त, कोटी सहित, नियन्त्रित साकार, अनाकार, परिमाणकृत, निरवशेष, सांकेतिक और अद्धाप्रत्याख्यान रूप से दस प्रकार की है। दूसरे शब्दों में उत्तरगुणों के पिण्डविशुद्धि, पाँच समिति, बाह्य तप, आभ्यन्तर तप, भिक्षु प्रतिमा और अभिग्रह ये दस प्रकार हैं। मूलगुणातिचार प्रतिसेवना और उत्तरगुणातिचार प्रतिसेवना, इनके भी दर्प्य एवं कल्प्य ये क्रमशः दो प्रकार हैं। बिना कारण प्रतिसेवना पिका है और कारणयुक्त प्रतिसेवना कल्पिका है । इस प्रकार वृत्तिकार ने विषय को स्पष्ट किया है। प्रस्तुत वृत्ति का ग्रन्थमान ३४६२५ श्लोक प्रमाण है। इस वृत्ति को भी 'विवरण' कहा गया है। राजप्रश्नीयवृत्ति प्रस्तुत वृत्ति के प्रारम्भ में वृत्तिकार मलयगिरि ने श्रमण भगवान महावीर को वंदन - नमस्कार कर बताया है कि प्रस्तुत आगम राजा के
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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