________________
५३० जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा तत्त्वार्थभाष्य, विशेषावश्यकभाष्य स्वोपज्ञवृत्ति, पंचसंग्रहटीका प्रभृति । इन ग्रन्थों में से अनेक ग्रन्थों के उद्धरण भी टीका में प्रयुक्त हुए हैं।
वृत्ति के प्रारम्भ में मंगल के प्रयोजन पर प्रकाश डालते हए आगे के सूत्रों में तन्तु और पट के सम्बन्ध में भी विचार चर्चा की गई है और मांडलिक, महामांडलिक, ग्राम, निगम, खेट, कर्बट, मडम्ब, पत्तन, द्रोणमुख, आकर, आश्रम, सम्बाध, राजधानी प्रभृति मानव बस्तियों के स्वरूप पर चिन्तन किया गया है। वत्ति में ज्ञानियों के भेदों पर चिन्तन करते हुए यह बताया है कि सिद्धप्रामृत में अनेक ज्ञानियों का उल्लेख है। नरकावासों के सम्बन्ध में बहुत ही विस्तार से प्रकाश डाला है और क्षेत्रसमासटीका, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका के अवलोकन का संकेत किया है। नारकीय जीवों की शीत और उष्ण वेदना पर विचार करते हुए प्रावट, वर्षा रात्र, शरद, हेमन्त, वसन्त और ग्रीष्म इन छ: ऋतुओं का वर्णन किया है। प्रथम शरद कार्तिक मास को बताया गया है। ज्योतिष्क देवों के विमानों पर चिन्तन करते हुए विशेष जिज्ञासूओं को चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति एवं संग्रहणी टीकाएं देखने का निर्देश किया गया है । एकादश अलंकारों का भी इसमें वर्णन है और राजप्रश्नीय में उल्लिखित ३२ प्रकार की नाट्य विधि का भी सरस वर्णन किया गया है।
. प्रस्तुत वृत्ति को आचार्य ने 'विवरण' शब्द से व्यवहृत किया है और इस विवरण का ग्रन्थमान १६००० श्लोक प्रमाण है।
व्यवहारवृत्ति यह वृत्ति मूलसूत्र, नियुक्ति व भाष्य पर की गई है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में भूमिका रूप पीठिका है। इस पीठिका में कल्प, व्यवहार, दोष, प्रायश्चित्त, प्रभृति विषयों पर चिन्तन किया गया है । वृत्तिकार ने प्रारम्भ में अर्हत् अरिष्टनेमि को, अपने सद्गुरुवर्य एवं व्यवहारसूत्र के चूर्णिकार को आदर सहित नमन किया है।
वृत्तिकार ने बृहत्कल्प और व्यवहार इन दोनों सूत्रों के अन्तर को स्पष्ट करते हुए कहा है कि कल्पाध्ययन में प्रायश्चित्त का निरूपण है पर उसमें प्रायश्चित्त दान की विधि नहीं है। व्यवहार में प्रायश्चित्त दान और आलोचना विधि दोनों हैं-यही व्यवहार की महत्ता है। व्यवहार, व्यवहारी और व्यवहर्तव्य इन तीनों पर चिन्तन करते हुए कहा है कि व्यवहारी कर्तारूप है, व्यवहार करण रूप है और व्यवहर्तव्य कार्य रूप है । करण