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आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य ५२६ की प्राकृत वृत्ति उपलब्ध होती है उसमें यह वाक्य नहीं है। सम्भव है इस सूत्र पर अन्य प्राकृत वृत्ति होगी जिसका उल्लेख आचार्य मलयगिरि ने अपनी वृत्ति में मूल टीका के रूप में किया है। यह भी सम्भव है कि उपलब्ध प्राकृत वृत्ति मूल टीका हो क्योंकि मूल टीका का एक वाक्य इस समय उपलब्ध वृत्ति में मिलता है। विज्ञों की ऐसी धारणा है कि पादलिप्त सूरि कृत वृत्ति ही मूल टीका हो जो इस समय प्राप्त होती है। कालक्रम से उसके कुछ वाक्यों का या पाठों का लोप हो गया हो ।
काल विषयक संख्या पर चिन्तन करते हुए वल्लभी और माधुरी वाचनाओं का निर्देश करते हुए लिखा है कि स्कन्दिलाचार्य के समय में एक बार भयंकर दुर्भिक्ष हो जाने से श्रमणों का अध्ययन- अध्यापन स्थगित हो गया था। पुनः सुभिक्ष होने पर वल्लभी और मथुरा में श्रमण समुदाय एकत्रित हुआ। दोनों स्थानों पर पृथक्-पृथक् सूत्रार्थ का संग्रह करने से वाचनाभेद हो गया क्योंकि विस्मृत सूत्रार्थ का स्मरण करके एकत्रित करने से वाचनाभेद सहज स्वाभाविक था । प्रस्तुत समय में अनुयोगद्वार आदि माथुरी वाचना के हैं जबकि ज्योतिष्करण्डकसूत्र के निर्माता आचार्य वल्लभी के थे । अतः प्रस्तुत सूत्र का संख्यास्थान प्रतिपादन वल्लभी वाचना के अनुसार होने के कारण अनुयोगद्वार प्रतिपादित संख्यास्थान से पृथक् है । प्रस्तुत वृत्ति के उपसंहार में आचार्य ने लिखा है कि प्रस्तुत कालज्ञान समास शिष्यों के विशेष अध्ययनार्थ सूर्यप्रज्ञप्ति के आधार से पूर्वाचार्यों ने लिखा है और यह ग्रन्थ विज्ञों के लिए अत्यन्त उपयोगी और उपादेय है । मुझ अल्पमति के द्वारा यदि जिनवचन विरुद्ध प्रज्ञापना हुई हो तो विज्ञ उसे सुधार लें। इस वृत्ति का ग्रन्थमान ५००० श्लोक प्रमाण है ।
जीवाभिगमवृत्ति
प्रस्तुत वृत्ति जीवाभिगम के पदों के विवेचन के रूप में है। इस वृत्ति में अनेक ग्रन्थ व ग्रन्थकारों का नामोल्लेख किया गया है—जैसे कि धर्मसंग्रहणीटीका, प्रज्ञापनाटीका, प्रज्ञपनामूलटीका, तस्वार्थमूलटीका, सिद्धप्राभृत, विशेषणवती, जीवाभिगममूलटीका, पंचसंग्रह, कर्मप्रकृतिसंग्रहणी, क्षेत्र समाटीका, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका, कर्मप्रकृतिसंग्रहणीचूर्ण, वसुदेव चरित, जीवाभिगमचूर्ण, चन्द्रप्रज्ञप्तिटीका, सूर्यप्रज्ञप्तिटीका, देशी नाममाला, सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्ति, पंचवस्तुक, आचार्य हरिभद्र रचित तत्त्वार्थटीका,