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________________ ५२६ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा में प्ररूपित अर्थ का प्रतिपादन इसमें नहीं हुआ है तो यह कथन सत्य तथ्य युक्त नहीं है। इसमें मन्दमति शिष्य विशेष को अर्थ समझाने की दृष्टि से विस्तार से समवायाङ्ग के अर्थ का प्रतिपादन किया गया है-ऐसा वृत्तिकार ने स्पष्ट कहा है। मंगल की सार्थकता पर चिन्तन करते हुए आचार्य ने हरिभद्रसूरि को नमस्कार किया है । 'क्योंकि उन्होंने प्रज्ञापनासूत्र के विषम पदों पर विवेचन किया है। जिनके महान उपकार के कारण ही मैं एक लघु टीकाकार बन सका हूँ ।' यह टीका मूल पदों पर है। आवश्यकतानुसार कहीं पर संक्षेप में और कहीं पर विस्तार से विवेचन किया गया है। प्रस्तुत वृत्ति का ग्रंथमान १६००० श्लोक प्रमाण है । सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्ति प्रस्तुत वृत्ति के प्रारम्भ में आचार्य मलयगिरि ने लिखा है कि निर्युक्तिकार भद्रबाहु विरचित सूर्यप्रज्ञप्ति की नियुक्ति नष्ट हो जाने से मैं इस पर केवल मूलसूत्र का ही व्याख्यान करूंगा। आचार्य ने प्रथम मिथिला नगरी, मणिभद्र चैत्य जितशत्रु राजा, धारिणी देवी और भगवान महावीर का साहित्यिक वर्णन किया है। उसके पश्चात् गणधर इन्द्रभूति गौतम का वर्णन है। तृतीय सूत्र की वृत्ति में सूर्य प्रज्ञप्ति के उन्हीं बीस प्राभृतों का विवेचन है जिनका संक्षेप में उल्लेख सूर्यप्रज्ञप्ति के परिचय में दिया जा चुका है। इन बीस प्राभृतों में प्रथम प्राभृत में आठ, द्वितीय में तीन, और दसवें में बाईस उपप्राभृत हैं। वृत्ति में उन सब प्राभृतों का विशद विश्लेषण किया गया है। दसवें व ग्यारहवें प्राभृत के विवरण में आचार्य ने लिखा- पुनर्वसु, रोहिणी, चित्रा, मघा, ज्येष्ठा, अनुराधा, कृत्तिका और विशाखा ये आठों नक्षत्र उभययोगी हैं। उन्नीसवें प्राभृत में जीवाभिगम चूर्णि का उल्लेख किया गया है। इस प्रकार प्रस्तुत वृत्ति में लोक श्री और उसकी टीका, स्वकृत शब्दानुशासन, हरिभद्र की तत्त्वार्थ टीका आदि ग्रन्थों का भी उद्धरण सहित उल्लेख किया है। इस वृत्ति का ग्रन्थमान ९५०० श्लोक प्रमाण है । ज्योतिष्करण्डकवृत्ति यह वृत्ति ज्योतिष्करण्डक प्रकरण के मूलपाठ पर की गई है। वृत्ति में पादलिप्तसूरि विरचित प्राकृत वृत्ति का निर्देश किया गया है और उसका एक वाक्य भी उद्धृत किया है। पर वर्तमान में जो ज्योतिष्क रण्डक
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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